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Thursday, July 9, 2009

परंपराओं का लोहा पीटते लोग

अपने पुरखों की विरासत को बचाए रखने के लिए लोग क्या कुछ नहीं करते। लेकिन आज हम आपसे चर्चा कर रहे हैं एक ऐसे समुदाय की जिसकी कई पीढ़ियां अपने पुरखों की एक क़सम को निभाने के लिए सड़क पर बंज़ारों की तरह जिंदगी गुज़ार चुकी है। गाड़िया लोहार कहलाने वाले ये लोग मुद्दतों से खानाबदोश ज़िंदगी जी रहे हैं। आइये जानते हैं राजस्थान की भूबिळया जाति की जीवनशैली और परंपराओं से जुड़े कुछ रोचक तथ्य.....
चिराग
जैन

तीन सौ साल पहले जब महाराणा प्रताप अक़बर से हार कर जंगल में चले गए थे तो उन्होंने यह क़सम खाई थी कि जब तक अपना राज्य जीत नहीं लूंगा तब तक न बिस्तरों पर सोऊँगा न घर बनाऊँगा, न कहीं छत डालूंगा न ही एक जगह चैन से बैठूंगा( सोने-चांदी के बर्तनों में खाना नहीं खाऊँगा, दीपक नहीं जलाऊँगा और सभी प्रकार की भोग विलासिता से दूर रहूँगा।अपने राजा के त्याग और आचरण से प्रेरित होकर महाराणा के कुछ साथियों ने भी अपना घर-बार छोड़ कर साधना और राष्ट्रप्रेम के पथ पर उनका साथ दिया और हर हाल में उनका साथ निभाने की शपथ ली। राणा और उनके साथियों की महानता तो उनके जीवन के साथ चली गई लेकिन उनके वंशज अपने पुरखों के इस बलिदान की यादों को ज़िंदा रखने के लिए आज भी वैसा ही जीवन जीने की कोशिशों में जुटे हैं।लोहे को पीट-पीट कर औजार बनाने वाले ये लोग मूलत: राजस्थान के चित्तौड़गढ़ के रहने वाले हैं। इनके पूर्वज महाराणा प्रताप के युद्ध-सहयोगी रहे हैं लेकिन अक़बर से युद्ध में हारने के बाद ये लोग बंजारों की ज़िंदगी जीने लगे और धीरे-धीरे चित्तौड़ से बहुत दूर निकल आए।ये लोग समूह में कारवां बनाकर, गांव-गांव घूमते रहते थे। इसी कारण इन्हें घुमंतू कहा जाता है। समूह के पुरुष दाढ़ी नहीं बनवाते थे। किसी एक जगह घर बनाकर रहने की समूह में मनाही थी। आपसी मेलजोल बढ़ाने के लिए यह नियम था कि सभी परिवार आपस में रोटियां बांट कर खाएंगे। बर्तनों में भोजन करने और दीपक जलाने की भी मनाही थी। लेकिन अब ये सब परंपराएं खत्म होनी शुरू हो गई हैं। लोगों ने झोंपड़ियां डालकर रहना शुरू कर दिया है।आज़ादी के बाद इस समुदाय ने बंजारो की तरह घूमने-फिरने की परंपरा छोड़ दी और बड़े-छोटे शहरों में झोंपड़ियां बनाकर रहना शुरू कर दिया। राजधानी दिल्ली के सराय रोहिल्ला में लगभग 58 साल से ऐसी ही एक बस्ती बसी हुई है। इसके अलावा कालका जी, पालम, शाहदरा, नोएडा, गा़ज़ियाबाद, अलवर, रोहतक, कानपुर, हिसार, अम्बाला, पानीपत, बीकानेर, झांसी, आगरा, अजमेर और जयपुर आदि स्थानोंं पर भी इनकी बस्तियां बनी हुई हैं, जहां हज़ारों की संख्या में गाड़िया लोहार अपना पुश्तैनी पेशा कर रहे हैं।इस समुदाय की जीवन शैली ही नहीं पहनावा, खानपान, भाषा, त्यौहार और रीति-रिवाज़ भी बेहद रोचक हैं। इनकी स्त्रियां घघरा-आंगी (एक प्रकार की परंपरागत लहंगा-चोली) पहनती हैं। हाथी दांत के सुंदर-सुंदर कड़े, चांदी के मोटे-मोटे आभूषण और चूड़ियों के साथ ताबीज आदि पहनना इन महिलाओं का विशेष शौक होता है। पुरुषों को धोती-कुर्ता और कानों में मुरकी (सोने की कड़ीदार बाली) पहने देखा जा सकता है। इसके अलावा रौबदार चेहरे और अच्छे डीलडौल वाले ये पुरुष अपने शरीर पर गुदवाकर कलाकृतियां बनवाने के शौकीन होते हैं। आज भी इनके पूरे शरीर पर ऐसी चित्रकारी देखी जा सकती है।इन लोगों की भाषा चित्तौड़, हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के अन्य प्रदेशों में प्रयोग की जाने वाली भाषा का मिश्रण है। ऐसा शायद इसलिए है कि अलग-अलग स्थानों पर रहने के कारण इनकी भाषा क्षेत्र विशेष की बोलियों से प्रभावित होती रही है। इस समुदाय के लोग सामान्यत: मांसाहारी भोजन करते हैं साथ ही चूल्हे की रोटियां इनका प्रिय भोजन है। राजस्थान की स्थानीय भाषाओँ में भूबिळये कहलाने वाले इस समुदाय को हम लोग गाड़िया लोहार के नाम से जानते हैं। कहीं-कहीं इन्हें घुमंतू तथा बंजारा भी कहा जाता है। रोज़मर्रा की ज़िंदगी जीते हुए इनके पूर्वज अक़बर से अपना राज्य वापस लेने की तैयारियां भी करते रहते थे। इसके लिए वे लोहे को गलाकर छोटे-बड़े हथियार बनाते थे ताकि युद्ध में हथियारों की कमी न पड़ जाए। बाद में रोजी-रोटी के लिए इसी लोहे में से इन्होंने लोहे के औजार बनाकर बेचना शुरू कर दिया, जो आज भी इस समुदाय का प्रमुख पेशा है।परिवार की महिलाएं व पुरुष दोनों ही औजार बनाने के काम में दक्ष होते हैं और आजीविका के लिए औज़ार बनाते हैं। चाकू, खुरपी, कुल्हाड़ी और छैनी से लेकर हथौड़ा, हंसिया, कुदाल और तसले तक वे सभी प्रकार के औजार व उपकरण जो लोहे से बनते हैं, इन लोगों से खरीदे जा सकते हैं। खेती के औजार बनाने में इन लोगों को विशेष कुशलता प्राप्त होती है। अब दिल्ली जैसे महानगरों में करोल बाग, सदर बाज़ार और चांदनी चौक जैसे कई बड़े बाज़ारों और मेलों में भी इनके बनाए औज़ार बिकते हुए देखे जा सकते हैं।सराय रोहिल्ला की बस्ती में रहने वाले साठ वर्षीय नेकीराम का मानना है कि यदि हमें साधन दिए जाएं तो हम औजारों के बाज़ार में बहुत अच्छा कर सकते हैं। लेकिन सरकार हमें कोई सहायता प्रदान करने के स्थान पर समय-समय पर हमारी इन बस्तियों को उजाड़ने के लिए आदेश निकालती रहती है।यह सच है कि न तो अब इस समुदाय में अपनी परंपराओं के प्रति पहले जैसी आस्था रह गई है न ही इन परंपराओं की आज की दुनिया में कोई आवश्यकता रह गई है। नाम न बताने की शर्त पर एक व्यक्ति ने यह भी जानकारी दी कि उसने राजधानी के बुध विहार इलाके में अपना मकान भी खरीद लिया है लेकिन अब भी वह इस बस्ती में इसलिए रह रहा है कि यहां रहकर वह अपने औजार ज्यादा बेहतर तरीके से बेच सकता है।कुछ भी हो लेकिन इन लोगों के बनाए औजारों में आज भी वही दम है। मल्टीनेशनल कंपनियां और बड़े-बड़े उद्योगपति आज एक से एक खूबसूरत औजार लेकर बाज़ार में उतर रही हैं। ये चाकू और छुरियां इतनी सुंदर होती हैं कि बड़े-बड़े लोगों के घरों में इन्हें डाइनिंग टेबल पर सजाकर रखा जाता है। बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों में बनने वाले ये औजार सुंदर तो होते हैं लेकिन उनमें इन हस्तनिर्मित औजारों वाली मजबूती नहीं होती। बेशक ये लोग औजारों के क्षेत्र में बेहद विकसित हैं क्योंकि इन्होंने लगभग तीन सौ साल अपनी परंपराओं का लोहा पीटा है।

1 comment:

संगीता पुरी said...

रोचक जानकारी !!