अवधेश कुमार मल्लिक
क्या आप सवर्ण हैं? यदि हां तो क्या आप अपने लड़के या लड़की शादी किसी दलित परिवार में करना चाहेंगें? क्या ऐसे रिश्ते आपको स्वीकार्य होंगे। गौरतलब है आजादी के आज 60से भी अधिक साल हो गये पर ऐसे सवालों का उत्तर आज भी ना में ही आते हैं। ऐसा क्यों? शादी की बात तो बहुत दूर की बात है, दलितों को आज भी जब धार्मिक स्थलों और कर्मकाण्ड से जुड़ी मामलों में बराबरी का दर्जा नहीं मिला है। गलती से इस मसले पर गर चर्चा भी हो जाए तो धरातल पर स्थिति वही ढ़ाक के तीन पात रहती है। पर चर्चा करने वाला जरुर हेय दृष्टि से देखा जाने लगता है, ऐसा क्यों? क्या इसलिए की गरीब दलित सदियों से शोषित होते आए हैं या मनुवादी समाज ने उनको जो कार्य सौंपे वो काफी घृणित और निचले स्तर के आज भी होते हैं? कारण जो भी हो पर वास्तविकता यह है की आज भी वे समाज को स्वीकार्य नहीं है। ऐसे में दलित धार्मिक पुर्नजागरण का मशाल बिहार थाम ले तो आप को हैरत होगी। पर यह बिलकुल सोलह आने सच है। वर्षों से बिहार अपनी कुप्रथाओं दलित विरोधी किस्से कहानियंा और गरीबी और पिछड़ेपन के कारण बदनाम होते आया है। परंतु प्रगतिवादी दक्षिण भारत, जहां दलित पार्टीयों का अपना एक व्यापक जनाधार व दबदबा है ।सरकार में हिस्सेदारी है फिर भी विडंबना यह है कि आज भी वहां दलितों को मंदिरों मेें जाने से रोका जाता है । इन्हें प्रताड़ित करने के नये नये हथकंडे अपनाए जाते हैं । कुछ दिनों पहले तक बिहार में भी यही स्थिति थी । पर आज अति रूढ़ीवादी और पिछड़ा कहे जाने वाला बिहार में इसके विपरीत परिवर्तन की हवा चल रही है। यह हवा है समाज में दलितों की सामाजिक और धार्मिक स्वीकार्यता बढ़ाने की। इन्हें प्रतिष्ठा दिलाने का। इसकी शुरूआत की गई प्रदेश की राजधानी पटना के भव्य एवम् अति प्रतििष्ठत महावीर मंदिर से। दलितों को ब्राह्मणों के समकक्ष लाने हेतु 1993 में भारतीय पुलिस सेवा के तेज तर्रार अधिकारी किशोर कुणाल के निर्देशन में महावीर मंदिर ट्रस्ट की स्थापना हुई और यहां नियुक्त हुआ देश का प्रथम दलित पुजारी श्री फलहारी दास । वर्तमान में श्री फलहारी दास महावीर मंदिर के प्रधान पुजारी हैं। प्रचलित रिवाजों के अनुसार मंदिरों में पुजारी के रूप में अधिकृत होने के अधिकार केवल ब्राह्मणों को है। ऐसे में किसी दलित का पुजारी के रूप में किसी प्रतििष्ठत मंदिर में नियुक्ति होने का सामाचार सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवाद उच्चवर्गीय सत्ता को खुली चुनौती थी। दूसरे अर्थों में कहे तो यह एक खूनी संघर्ष और व्यापक जनविरोध का आमंत्रण था।इस चुनौती को किशोर कुणाल ने बखूबी निभाया और ऐसा कुछ नहीं हुआ। कोई अनहोनी घटीत नहीं हुई। लोग भौंचक्के थे। बिहारी खबर पटना के संपादक संतोष सुमन के अनुसार छिटपुट विरोध के बाद लोगों ने इसे सच स्वीकार कर लिया। इसका मुख्य कारण था लोगों में कुणाल की छवि एक निडर और स्वच्छ चरित्र वाले व्यक्ति होना , दूसरा पटना का शहर होना और तीसरा महावीर मंदिर के निर्माण में किशोर कुणाल के अहम भूमिका में होना था। इस घटना के बाद दलित उत्थान के नाम पर भाषणबाजियां चलती रही। दलित नेताएं जीतते रहे पर दलितों की धार्मिक स्वीकृति वाले मुद्दे इन सब के बीच ं न जानें कहीं दब गई। 14 साल बाद अब जो खबर अखबारों की सुिर्खयां बनी वो अपने आप में खास है। यह घटना है पटना से 40 किलोमिटर दूर देहात पालीगंज की। यहां के प्रतििष्ठत राम-जानकी मंदिर में कबीर जयंती के दिन दलित पुजारी जनार्दन मांझी की नियुक्ति हुई । मंदिर के 300 वषाZें से ज्यादा के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ। पालीगंज अपने धार्मिक कट्टरपन के लिए पूरे बिहार मे कुख्यात है। क्यूंकि यहां पर धर्मभीरु उंचे रसूख वाले ब्राहमणों की कमी नहीं है और अच्छी खासी संख्या में उच्च जाति के लोग यहां निवास करते हैं। इस बात को लेकर कुणाल भी आशंकित थे की उनके इस कदम का यहां पर भारी विरोध होगा। इन सब विसंगतियों के बाद बावजूद परिणाम इसके विपरीत निकले। विरोध तो दूर की बात है इसबार लोगों ने उनके इस कार्य की जमकर सराहना की। इतना ही नहीं इस कार्य की खुसी में आयोजित भोज (पंगतद्ध मे करीब दस हजार लोगों ने भाग लिया। क्या यह हैरत वाली बात नहीं हैं , बिहार जहां सियासत की लड़ाईयों में आज भी हार जीत का फैसला जातिय आधार पर होता है। जाति वचZस्वता कायम रखने और रक्त शुðता के नाम पर लोग मारने काटने तक से भी गुरेज नहीं करते। इसकी रक्षा करने के लिए लोग खून की नदीयां बहा देते हैं। वहां की धार्मिक सत्त में सेंध लग गई और विरोध के स्वर भी नहीं उठे। इस पर टिप्पणी करते हुए पटना के ए.एन. सिन्हा ईन्सीट्यूट में कार्यरत प्रख्यात मानव विज्ञानी एवं प्रोफेसर नीलरतन ने कहा की - विरोध न होने का मुख्य वजह है शिक्षा के स्तर में सुधार और प्रसार, ग्लोबलाइजेशन और व्यक्तिवाद का बढ़ता प्रभाव´। उनके अनुसार शिक्षा के प्रसार व ग्लोबलाईजेशन के कारण व्यक्तियों के मानसिक सोच में काफी परिवर्तन आया है। व्यक्ति आज सामाजिक कम और व्यिक्वादी ज्यादा हो गया हो गया है। जिसके कारण सामाजिक पकड़ पहले से काफी ढ़ीले हो गए हैं। उस पर से सरकार, गैरसरकारी संगठन व मीडिया का सकारात्मक रवैया और इन सब का संयुक्त प्रयास के चलते दलितों के प्रति समाजिक दृष्टिकोण में काफी बदलाव आया है। जबकी पटना के ए.एन. कॉलेज के प्रींसीपल एस आर सिंह कुणाल के कार्य को क्रांतिकारी कदम मानते हैं। सराहनीय कदम है। इस बात की चर्चा वो इसका श्रेय शिक्षा के प्रसार और समाज में आ रही जागृति को देतें हैं। ध्यान देने वाली बात है आजादी के बाद संविधान निर्माता डा. बी. आर. अंबेडकर भी इसी प्रकार की धार्मिक स्वीकृति चाहते थे जिसके ना मिलने के कारण अम्बेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौ( धर्म अपना लिया। तब से लेकर आज तक धार्मिक स्वीकृति के नाम पर छिटपुट आंदोलन तो चलते रहे लेकिन इस प्रकार के साहसिक कदम उठाने का साहस किसी ने नहीं किया । इसलिए कुणाल के कदम पर प्रतिक्रिया जानने के लिए जब बिहार प्रशासनिकसेवा के एक दलित अधिकारी से संपर्क साधा तो नाम न छापने के शर्त पर बताया की वो दरभंगा जिले से हैं आज से 12 साल पहले उनकी बहन की शादी हुई, शादी पर बुलाए पंडित ने काफी आग्रह करने पर भोजन कर लिया। इस बात की खबर जब उनकी बिरादरी वाले को हुई तो सबने मिलकर उन्हें जाति से बेदखल करने की भरपूर कोशिश किया । जबकी यह जानते थे की मैं एक प्रशासनिक अधिकारी हूं। अत: मेरे दखल देने और मेरे द्वारा घोषणा करने पर की पंडितजी ने मेरे यहां भोजन ग्रहण नहीं किया तब जाकर मामला शांत हुआ। एक प्रशासनिक अधिकारी का यह हाल है तो सोचा जा सकता है कि निधर्न व कमजोर दलितों के साथ क्या होता होगा। भले ही संविधान में अस्पश्Zयता निषेध है पर आज भी गांवो में यह खूब चलता है। ऐसी घटनाएं आज भी घटती है लेकिन उनकी संख्या कम है । उच्चवर्ग के चपरासी आज भी अपने दलित अफिसर को चाय पानी यहां तक की उनकी हुक्म बजाने में आज भी आना-कानि करते हैं। डा. सिच्चदानंद द्वारा लिखि गई पुस्तक हरिजन ईलाइट में ऐसे कई घटीत वर्णन मिलते हैं। कुणाल के इस कदम के बारेमें कहा की हम सब उत्साहित हैं और हम इसका स्वागत करते हैं।हकीकत में संविधान और सरकार आरक्षण और कानून कस निमार्ण तो कर सकती है पर पालना तो जनता ही को करना है। कुणाल भी इस बात को स्वीकार करते हैं बिहार के मिथलाचंल कहे जाने वाले जिलों में अभि इस प्रकार की नियुक्ति संभव नहीं है समयानूकूल होने पर वो इससे पीछे नहीं हटेंगें। स्वंयं सेवी संस्था प्रयास से सबंध रखने वाले संजय सिंह का कुणाल मामले अलग राय रखते हैं। उनका कहना था बिहार के गांवो में लोग रहते ही कहां है। अधिकाशं लोग खासकर उच्च वर्ग के लोग शहरों में रहना पसंद करते हैं। वहां जाति से ज्यादा व्यक्तिगत स्थिति का ज्यादा महत्व होता है। इसलिए गांवों में भी लोग अब व्यक्तिगत प्रतिष्ठा को ज्यादा महत्व देते हैं। जबकी दरभंगा के सुरेन्द्र नारायण दास जमींदारी प्रथा का जाति प्रथा जोड़ते हुए कहते हैं। अब जबकी जमिंदारी ही नहीं रही तो धीरे धीरे यह उंच नीच भी खत्म हो जाएगा लेकिन अमीर गरीब की खाई अवश्य रहेगी। मधुबनी के भवनाथ झा कहते हैं हमें दलितों से परहेज नहीं है पर उनके पारंपरिक कार्यों से अवश्य है। अगर व्यक्ति वेद मंत्रों का सही उच्चारण कर सकता है अगर कर्मकाण्ड का सही ज्ञान है तो उस से पूजा करवाने में क्या हर्ज है। पूजा करवाने के मसले पर किशोर कुणाल कहतें हैं यह एक मिथ्या प्रचार है की दलित अगर पूजा करेंगें तो धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। मैंने अपनी 300 से ज्यादा पृष्ठों की पुस्तक दलितो देवो भव् में स्पष्ट लिखा है दलितों को भी ईश्वरीय अराधना करने का उतना ही अधिकार जितना की एक ब्राहमण को । इसको प्रमाणित करने के लिए मैंने वेद स्मृति समस्त पुराणो और विभिन्न प्रकार के धार्मि का ग्रंथो का सार लिया है जिसमें कहीं भी दलितो द्वारा पूजा को अवैध अनैतिक ठहराया गया है या प्रतिबंधित नहीं किया गया है। वैसे भी ईश्वर के दरबार में सब बराबर है तभी तो कबीर दास ने कहा था `जात पात न पूछे कोई हरि के भजै से हरि के होई´। अपने उपलब्धि से उत्साही किशोर कुणाल जो वर्तमान में बिहार राज्य धार्मिक ट्रस्ट बोर्ड (बी. आर. टी .बीद्धके अध्यक्ष हैं ने कहा की आनेवाले समय में बिहार के तमाम मंदिरों में पुजारी क ेरूप में दलित ही नियुक्त होंगें और इसके लिए वो प्रयासरत हैं। आंकड़ो के अनुसार बिहार में कुल रजिस्टर्ड मंदिरों की संख्या कुल 3000 है, और मंदिरों की संख्या करीब 50000 तक है। दूसरे अर्थो में यह समझा जा सकता है कि आने वाले समय में बिहार में दलित कुल पुजारियों की संख्या 50000 या उससे अधिक हो जाएगी। जो अपने आपमें एक बड़े बदलाव का द्योतक है। इसलिए हमें प्राथ्Zाना करनी चाहीए की कुणाल के प्रयास अवश्य रंग लाए । अगर ऐसा होता है तो निश्चय ही बिहार पूरे भारत में एक ऐसी क्रांति का नेतृत्व करेगा जिसका की इंतजार भारत को वर्षों से था। कुणाल के इस कदम को हम जाति रहित समाज निर्माण ओर बढ़ने वाला कदम मान सकते हैं जहां मानवता और कर्म की पूजा होती है न किसी जाति विशेष की। अगर हमें 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्रों की सूची में लाना है तो ऐसे कदम उठाने ही होंगें । इसलिए विवेकानंद ने भारत विकास के संदर्भ में कहा `दीन-दलित-दुखी देवो भव्´
Wednesday, July 8, 2009
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