उमाशंकर मिश्र/भरतपुर
भरतपुर जिले की वैर तहसील की इटामड़ा ग्राम पंचायत के गांव नगला-धाकड़ में रहने वाले धाकड़ जाति के लोगों की आजीविका का मुख्य आधार खेती और पशुपालन रहा है। लेकिन छोटी जोतें और उस पर अनुपजाऊ भूमि स्थानीय ग्रामीणों के जीवन की एक फांस बन चुकी थी और हालात भरण-पोषण के संकट तक पहुंच चुके थे। ऐसे में जीवन-यापन के साधन जुटाने के लिए स्थानीय लोगों में पलायन की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। पलायन करने वालों में नगला के तीन ऐसे परिवार भी थे, जिन्हें जयपुर में नगीनों की पॉलिश का काम मिल गया। सुरेश चंद्र धाकड़ एवं उनके दो अन्य साथी इसमें शामिल थे। कुछ लोगों को आगरा एवं आसपास के अन्य इलाकों में भी काम मिल गया, लेकिन कमाई का अधिकांश हिस्सा वहां पर आवास, भोजन और आवागमन पर खर्च हो जाने से बचत नहीं हो पाती थी। स्थानीय स्तर पर संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण तो आजीविका दूभर थी ही, लेकिन घर-बार छोड़कर जाने के बाद भी अपेक्षित लाभ नहीं हो रहा था। पलायन कर चुके हर व्यक्ति की तरह परदेस में रहते हुए नगला के लोगों के मन में भी ख्याल आते थे कि `यदि गांव में रहकर ही कोई काम मिल जाये तो परेशानियां हल हो जायेंगी, क्योंकि थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी भी ऐसे में हो जाएगी।
गत दीपावली के दौरान सुरेश धाकड़ ने गांव में ही नगीना घिसाई मशीन व शेड बनाने का विचार गांव वालों के सम्मुख रखा। चर्चा हुई और ग्रामीणों की सहमती भी इस काम को लेकर बन गई। लेकिन इसके लिए संसाधन कैसे जुटाया जाये, यह गरीब ग्रामीणों के लिए इतना आसान नहीं था। नगीना घिसाई की मशीन व शेड बनाने हेतु लगभग 40-50 हजार रूपये की आवश्यकता थी। इस समस्या को कैसे हल किया जाये, इस बात को लेकर ग्रामीणों ने लुपिन ह्युमन वेलफेयर फांउडेशन के प्रतिनिधी से चर्चा की तो उसने लघु उद्योगों की स्थापना के लिए बैंकों से मिलने वाले ऋण के बारे में लोगों को जानकारी दी। यही नहीं लुपिन के प्रतिनिधियों ने ऋण के लिए आवेदन कराने से लेकर उद्यमों की स्थापना तक पूरा सहयोग नगला के नव-स्वरोजगारियों को दिया। इस तरह सुरेश को सिडबी की ओर से ऋण मिल गया और उसने अपनी छोटी से यूनिट नगला में ही आरंभ कर दी। जयपुर में काम करने वाले अन्य लोगों को जब नगला में हुए इस नए प्रयोग के बारे में पता चला तो उन्होंने भी लुपिन के प्रतिनिधियों से सहयोग की अपील की। इस तरह अन्य लोगों को भी स्थाीनय लोगों को ऋण दिला दिया गया। देखादेखी नगीना पॉलिश करने वाली स्वरोजगार इकाइयों की संख्या दिनो-दिन बढ़ने लगी।
अपने गांव में इस बदलाव से प्रभावित होकर आगरा में काम करने वाले लोग भी वापस अपने ही गांव में आ गये और संस्था के सहयोग से गांव में घुंघरू तथा पट्टा चैन की यूनिटे लगाई। इन लोगों को गांव में संचालित 6 महिला स्वयं तथा अन्य लोंगों को प्रशिक्षण केन्द्र के माध्यम से घुंघंरू व पट्टा चैन बनाने का प्रशिक्षण दिया गया। जिससे ये महिलाऐं उनकेे काम को सफलतापूर्वक निभाने लगी तथा उनके घर के पुरूष इनकीे मािर्कटिंग हेतु आगरा तथा आसपास के शहरों में जाने लगे। नगीना घिसाई के व्यवसाय के लिए गांव के अन्दर ही प्रशिक्षण केन्द्र प्रारम्भ किया गया, जिसमें गांव तथा आसपास के युवाओं को 3 महीने का गहन प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके उपरान्त यहां से प्रशिक्षित लोग गांव में लगी हुई यूनिटों में तथा कुछ प्रशिक्षणार्थी अपनी इन स्वयं की यूनिटें लगाकर काम करने लगे।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की दिशा में एक और कदम बढ़ाते हुए संस्था ने `लुपिन ग्राम विकास पंचायत´ का गठन किया गया है। गांव के लोग प्रतिनिधि चुनकर इस कमेटी का गठन करते हैंं, जो ग्रामीणों के ऋण प्रस्तावों पर विचार-विमर्श कर अनुमोदन के बाद स्वीकृत कर लुपिन, राष्ट्रीय महिला कोष तथा स्थानीय बैंकों से धन दिलाने में मदद करती है। इस तरह गांव में ही स्वरोजगार के साधन ग्रामीणों को उपलब्ध हो जाते हैं और वे इससे होने वाली आय से ऋण समय पर चुका देते हैं। गांव के सहायता समूह की महिलाएं आपस में स्वरोजगार की छोटी-मोटी आवश्यकताएं अपने समूह से ही ऋण लेकर पूरी कर लेती है। गांव के 26 अनुभवी तथा प्रशिक्षित लोगों को वहां के स्थानीय बैंक द्वारा उद्यमी कार्ड भी दिलवाया हुआ है। इसके तहत सदस्य 25000 तक का लेन-देन कभी कर सकते है। यह कार्ड सदस्यों की समय-समय पर आने वाली आवश्यकता जैसे मजदूरी भुगतान, कचचे माल का क्र्रय, डीजल क्रय आदि हेतु काफी काम आता है। वर्तमान में नगला धाकड़ गांव में नगीना पॉलिश की 42, घुंघरू की 14 तथा पट्टे चैन की 28 यूनिटें कार्य कर रही हैं, जिससे लगभग 1000 लोगों को सीधे तौर पर रोजगार मिल रहा है। यहां पुरूष नगीना पॉलिश तथा महिलाऐं घुंघरू के व्यवसाय में लगी हुई है। समय-समय पर संस्था का गांव के लोगों को स्वरोजगार के प्रति प्रोत्साहन महत्वपूर्ण रहा है। स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित कर उनकी कला निखरने में संस्था की भूमिका एक उत्प्रेरक की रही है। आसपास के लोगो को आदर्श गांवों का भ्रमण कराकर उन्हें इसी प्रकार के कार्य की पुनरावृत्ति करने की प्रेरणा दे रही है।
सिलसिला शुरू हुआ तो कारवां बनता चला गया और इसका प्रभाव कुछ ही समय में नगला-धाकड़ में नज़र आने लगा। सिडबी के सहयोग से ग्रामीण उद्यमिता विकास कार्यक्रम केे तहत 450 लोगों को प्रायोगिक व सैद्धान्तिक प्रशिक्षण मिल जाने से लोगों में उद्यमीय कौशल में भी वृद्धि हुई है। आज नगला में विभिन्न व्यवसाय की 84 इकाइयां कार्यरत हैं, जिसमें लगभग एक हजार परिवारों के आर्थिक तथा सामाजिक विकास को प्रोत्साहन मिला है। चूल्हे चौके तक सिमट कर रहने वाली महिलाएं भी स्वरोजगार से जुड़कर गांव के विकास की मुख्यधारा में शामिल होने लगी हैं। यही नहीं आसपास के क्षे़़त्रों में सैकड़ों लोगों ने इस तरह के प्रयास के प्रारम्भ कर दिये हैं, जो एक सुखद बात कही जा सकती है। जीवन यापन की समस्या हल हो जाने के बाद स्थानीय ग्रामीणों का रूझान शिक्षा की तरफ अब बढ़ने लगा है। आधारभूत सुविधाओं के विकास के चलते गांव की छात्राएं अब उच्च शिक्षा हेतु जाने लगी हैं। हालांकि अब नगला धाकड़ आर्थिक समृद्धि की ओर अग्रसर है, परन्तु आज भी गांव के लोग व्यथित है कि यहां मात्र 6 से 8 घन्टे बिजली रहती है। जिससे प्रत्येक परिवार का लगभग 30 हजार रूपये का डीजल बिजली की वैकल्पिक व्यवस्था करने में खर्च हो जाता है। फिलहाल गांव के सभी लोग लुपिन के सहयोग से जिला प्रशासन से गांव को कस्बे के समान अधिक बिजली दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गांव वालों की मानें तो बिजली की समस्या हल हो जाने से उनकी सारी मुिश्कलें हल हो जाएंगी और नगला-धाकड़ एक संपूर्ण आत्मनिर्भर गांव बनकर एक मिसाल कर पाने में समर्थ हो जाएगा।
भरतपुर जिले की वैर तहसील की इटामड़ा ग्राम पंचायत के गांव नगला-धाकड़ में रहने वाले धाकड़ जाति के लोगों की आजीविका का मुख्य आधार खेती और पशुपालन रहा है। लेकिन छोटी जोतें और उस पर अनुपजाऊ भूमि स्थानीय ग्रामीणों के जीवन की एक फांस बन चुकी थी और हालात भरण-पोषण के संकट तक पहुंच चुके थे। ऐसे में जीवन-यापन के साधन जुटाने के लिए स्थानीय लोगों में पलायन की प्रवृत्ति बढ़ रही थी। पलायन करने वालों में नगला के तीन ऐसे परिवार भी थे, जिन्हें जयपुर में नगीनों की पॉलिश का काम मिल गया। सुरेश चंद्र धाकड़ एवं उनके दो अन्य साथी इसमें शामिल थे। कुछ लोगों को आगरा एवं आसपास के अन्य इलाकों में भी काम मिल गया, लेकिन कमाई का अधिकांश हिस्सा वहां पर आवास, भोजन और आवागमन पर खर्च हो जाने से बचत नहीं हो पाती थी। स्थानीय स्तर पर संसाधनों की अनुपलब्धता के कारण तो आजीविका दूभर थी ही, लेकिन घर-बार छोड़कर जाने के बाद भी अपेक्षित लाभ नहीं हो रहा था। पलायन कर चुके हर व्यक्ति की तरह परदेस में रहते हुए नगला के लोगों के मन में भी ख्याल आते थे कि `यदि गांव में रहकर ही कोई काम मिल जाये तो परेशानियां हल हो जायेंगी, क्योंकि थोड़ी बहुत खेती-बाड़ी भी ऐसे में हो जाएगी।
गत दीपावली के दौरान सुरेश धाकड़ ने गांव में ही नगीना घिसाई मशीन व शेड बनाने का विचार गांव वालों के सम्मुख रखा। चर्चा हुई और ग्रामीणों की सहमती भी इस काम को लेकर बन गई। लेकिन इसके लिए संसाधन कैसे जुटाया जाये, यह गरीब ग्रामीणों के लिए इतना आसान नहीं था। नगीना घिसाई की मशीन व शेड बनाने हेतु लगभग 40-50 हजार रूपये की आवश्यकता थी। इस समस्या को कैसे हल किया जाये, इस बात को लेकर ग्रामीणों ने लुपिन ह्युमन वेलफेयर फांउडेशन के प्रतिनिधी से चर्चा की तो उसने लघु उद्योगों की स्थापना के लिए बैंकों से मिलने वाले ऋण के बारे में लोगों को जानकारी दी। यही नहीं लुपिन के प्रतिनिधियों ने ऋण के लिए आवेदन कराने से लेकर उद्यमों की स्थापना तक पूरा सहयोग नगला के नव-स्वरोजगारियों को दिया। इस तरह सुरेश को सिडबी की ओर से ऋण मिल गया और उसने अपनी छोटी से यूनिट नगला में ही आरंभ कर दी। जयपुर में काम करने वाले अन्य लोगों को जब नगला में हुए इस नए प्रयोग के बारे में पता चला तो उन्होंने भी लुपिन के प्रतिनिधियों से सहयोग की अपील की। इस तरह अन्य लोगों को भी स्थाीनय लोगों को ऋण दिला दिया गया। देखादेखी नगीना पॉलिश करने वाली स्वरोजगार इकाइयों की संख्या दिनो-दिन बढ़ने लगी।
अपने गांव में इस बदलाव से प्रभावित होकर आगरा में काम करने वाले लोग भी वापस अपने ही गांव में आ गये और संस्था के सहयोग से गांव में घुंघरू तथा पट्टा चैन की यूनिटे लगाई। इन लोगों को गांव में संचालित 6 महिला स्वयं तथा अन्य लोंगों को प्रशिक्षण केन्द्र के माध्यम से घुंघंरू व पट्टा चैन बनाने का प्रशिक्षण दिया गया। जिससे ये महिलाऐं उनकेे काम को सफलतापूर्वक निभाने लगी तथा उनके घर के पुरूष इनकीे मािर्कटिंग हेतु आगरा तथा आसपास के शहरों में जाने लगे। नगीना घिसाई के व्यवसाय के लिए गांव के अन्दर ही प्रशिक्षण केन्द्र प्रारम्भ किया गया, जिसमें गांव तथा आसपास के युवाओं को 3 महीने का गहन प्रशिक्षण दिया जाता है। इसके उपरान्त यहां से प्रशिक्षित लोग गांव में लगी हुई यूनिटों में तथा कुछ प्रशिक्षणार्थी अपनी इन स्वयं की यूनिटें लगाकर काम करने लगे।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने की दिशा में एक और कदम बढ़ाते हुए संस्था ने `लुपिन ग्राम विकास पंचायत´ का गठन किया गया है। गांव के लोग प्रतिनिधि चुनकर इस कमेटी का गठन करते हैंं, जो ग्रामीणों के ऋण प्रस्तावों पर विचार-विमर्श कर अनुमोदन के बाद स्वीकृत कर लुपिन, राष्ट्रीय महिला कोष तथा स्थानीय बैंकों से धन दिलाने में मदद करती है। इस तरह गांव में ही स्वरोजगार के साधन ग्रामीणों को उपलब्ध हो जाते हैं और वे इससे होने वाली आय से ऋण समय पर चुका देते हैं। गांव के सहायता समूह की महिलाएं आपस में स्वरोजगार की छोटी-मोटी आवश्यकताएं अपने समूह से ही ऋण लेकर पूरी कर लेती है। गांव के 26 अनुभवी तथा प्रशिक्षित लोगों को वहां के स्थानीय बैंक द्वारा उद्यमी कार्ड भी दिलवाया हुआ है। इसके तहत सदस्य 25000 तक का लेन-देन कभी कर सकते है। यह कार्ड सदस्यों की समय-समय पर आने वाली आवश्यकता जैसे मजदूरी भुगतान, कचचे माल का क्र्रय, डीजल क्रय आदि हेतु काफी काम आता है। वर्तमान में नगला धाकड़ गांव में नगीना पॉलिश की 42, घुंघरू की 14 तथा पट्टे चैन की 28 यूनिटें कार्य कर रही हैं, जिससे लगभग 1000 लोगों को सीधे तौर पर रोजगार मिल रहा है। यहां पुरूष नगीना पॉलिश तथा महिलाऐं घुंघरू के व्यवसाय में लगी हुई है। समय-समय पर संस्था का गांव के लोगों को स्वरोजगार के प्रति प्रोत्साहन महत्वपूर्ण रहा है। स्थानीय लोगों को प्रशिक्षित कर उनकी कला निखरने में संस्था की भूमिका एक उत्प्रेरक की रही है। आसपास के लोगो को आदर्श गांवों का भ्रमण कराकर उन्हें इसी प्रकार के कार्य की पुनरावृत्ति करने की प्रेरणा दे रही है।
सिलसिला शुरू हुआ तो कारवां बनता चला गया और इसका प्रभाव कुछ ही समय में नगला-धाकड़ में नज़र आने लगा। सिडबी के सहयोग से ग्रामीण उद्यमिता विकास कार्यक्रम केे तहत 450 लोगों को प्रायोगिक व सैद्धान्तिक प्रशिक्षण मिल जाने से लोगों में उद्यमीय कौशल में भी वृद्धि हुई है। आज नगला में विभिन्न व्यवसाय की 84 इकाइयां कार्यरत हैं, जिसमें लगभग एक हजार परिवारों के आर्थिक तथा सामाजिक विकास को प्रोत्साहन मिला है। चूल्हे चौके तक सिमट कर रहने वाली महिलाएं भी स्वरोजगार से जुड़कर गांव के विकास की मुख्यधारा में शामिल होने लगी हैं। यही नहीं आसपास के क्षे़़त्रों में सैकड़ों लोगों ने इस तरह के प्रयास के प्रारम्भ कर दिये हैं, जो एक सुखद बात कही जा सकती है। जीवन यापन की समस्या हल हो जाने के बाद स्थानीय ग्रामीणों का रूझान शिक्षा की तरफ अब बढ़ने लगा है। आधारभूत सुविधाओं के विकास के चलते गांव की छात्राएं अब उच्च शिक्षा हेतु जाने लगी हैं। हालांकि अब नगला धाकड़ आर्थिक समृद्धि की ओर अग्रसर है, परन्तु आज भी गांव के लोग व्यथित है कि यहां मात्र 6 से 8 घन्टे बिजली रहती है। जिससे प्रत्येक परिवार का लगभग 30 हजार रूपये का डीजल बिजली की वैकल्पिक व्यवस्था करने में खर्च हो जाता है। फिलहाल गांव के सभी लोग लुपिन के सहयोग से जिला प्रशासन से गांव को कस्बे के समान अधिक बिजली दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। गांव वालों की मानें तो बिजली की समस्या हल हो जाने से उनकी सारी मुिश्कलें हल हो जाएंगी और नगला-धाकड़ एक संपूर्ण आत्मनिर्भर गांव बनकर एक मिसाल कर पाने में समर्थ हो जाएगा।
7 comments:
achchha pryaas hai.
यह तो पूरे भारत के लिये अनुकरणीय गाँव है। इतना सुखद समाचार से परिचय कराने के लिये बहुत-बहुत धन्यवाद।
(यदि भरतपुर किस प्रदेश में है, यह भी उल्लिखित होता तो बेहतर होता। भूगोल में गोल लोगों को विशेष रूप से सुविधा होती।)
प्रिय अनुनाद जी, आपका ग्रामीण एवं विकासात्मक ख़बरों से जुडाव अच्चा लगा. मई आपको बताना चाहूँगा की भरतपुर राजस्थान में है और दिल्ली से महज २०० किलोमीटर की दूरी पर, मथुरा से ४५ किलोमीटर की दूरी पर, आगरा से ५५ किलोमीटर की दूरी पर और जयपुर से करीब पौने दो सौ किलोमीटर की दूरी पर है.
उलेखनीय है कि भरतपुर घाना पक्षी राष्ट्रिय उद्यान के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है.
गाँव से पलायन रोकने के लिए ग्रामीण स्तर पर रोज़गार की व्यवस्था बुनियादी ज़रुरत है । दो वक्त की रोटी की तलाश में शहर आने वालों का जीवन बदतर हो जाता है और गाँव उजड़ते जाते हैं । शहरों पर दबाव कम करने के लिए गाँवों को आत्मनिर्भर बनाना वक्त की माँग है । इस तरह के कामयाब सफ़र की दास्तान लोगों के सामने लाकर आपने सराहनीय काम किया है ।
bahut dinon se aise blog ki talash kar raha tha jo mujhe garamin bahat ke baaren men jankari de.blog ko follow karna chahta tha magar opption nahi mila. aap mere blog ki kisi post par comment chod dena taaki aapse juda rahun.
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