पेशे से अध्यापक मनोज कुमार कौल बताते हैं कि हम `छोटा लंदन´ के नाम से विख्यात सोपोर के रहने वाले हैं, लेकिन आज नरक में रहना पड़ रहा है। वहां का वातावरण ही ऐसा था कि अन्य किसी परिवेश में जाकर वहां के लोगों का जीवन यापन आसान नही था, जलवायु परिवर्तन का भी असर देखने को मिला। यहां गर्मी थी, लेकिन पैसा नहीं थी कि एक पंखा खरीद सकें। वे बताते हैं कि पिताजी घर छूटने के सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके और चल बसे, उन्होंने बड़ी गरीबी में एक-एक पाई जोड़कर घर बनाया था। वे आगे कहते हैं कि "मैं सरकारी नौकरी में था, लेकिन लम्बे समय तक मुझे सिर्फ बेसिक वेतन ही मिलता रहा, जबकि कश्मीर में सरकारी नौकरियां छोड़कर आए विस्थापित पंडितों के रिक्त पदों पर अब अन्य लोग काबिज हो गए हैं।" मनोज कहते हैं कि हम वोट बैंक नहीं हैं न, इसलिए सरकार हमारी नहीं सुनती। वे बताते हैं कि विस्थापन के करीब दो दशकों के दौरान हमारे समुदाय के एक भी बच्चे को प्रतिभशाली होने के बावजूद सरकारी नौकरी नहीं मिली है। हालांकि मनोज जैसे कुछ लोग पहले से ही सरकारी नौकररियों में थे तनख्वाह तो पूरी नहीं मिलती थी, गुजारा जैसे तैसे चलता रहा। बाद में वेतन में कुछ सुधार भी हुआ और इन्होंने कबूतरखाने को अपने तरीके से परिवार की जरूरतों के मुताबिक ढाल लिया है। लेकिन इन शिविरों में रहने वाले सभी लोगों के साथ ऐसा नहीं है। बकौल मनोज इतने पर भी हमारे सिर पर तलवार लटकती रहती है, हमारे पास अपनी कोई प्रोपर्टी नहीं रही है और सरकार जब चाहे इस कबूतरखाने से भी हमें बेदखल कर सकती है। वे कहते हैं कि ये जो मरम्मत वगैरह हमने करवाई है इसका कोई मुआवजा तक हमें नहीं मिलेगा, एक आदेश पर सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा। सतही तौर पर न देखते हुए मानवीय संवेदना के स्तर पर उतर इन लोगों की पीड़ा को समझने की जरूरत है, तभी वास्तविकता का आभास हो सकेगा। 37 वर्षीय तेजकिशन भट्ट 19 साल से शिक्षा विभाग में 600 रुपये वेतन पर वॉचमैन के पद पर हैं, जबकि अभी तक नियमित कर्मचारी नहीं बन सके हैं। तेजकिशन के साथ उनके भाई का परिवार भी रहता है। ऐसे में कैसे गुजर-बसर होती होगी, अंदाजा लगाया जा सकता है। अनंतनाग निवासी तेजकिशन बताते हैं कि गांव में उनका मकान, जमीन, बाग बगीचा सब खत्म हो गया है। आगे वे कहते हैं कि ``1990 में आतंकवाद बढ़ गया तो हमें अपना घर छोड़ना पड़ गया। पहले तो उधमपुर में 5 सालों तक हमको परिवार सहित टैन्टों में रहना पड़ा। जब बरसात का मौसम आता तो डंडे पकड़कर न जाने कितनी ही रातें हमने काटी हैं। बहुत से लोगों की मौत तो सांप और बिच्छुओं के ज़हर से हो गई। 1995 में बट्टर वालियां में हमें एक कमरा मिला था, बाद में हम जम्मू आ गए और तबसे यहीं रह रहे हैं।´´ तेजकिशन बताते हैं कि युवाओं का तो अब कोई भविष्य ही नहीं रह गया है। मां-बाप जैसे तैसे करके बच्चों को पढ़ाते हैं, लेकिन नौकरी के लिए कोई फार्म ही स्वीकार नहीं होता है। विस्थापितों के लिए कोई कोटा नहीं है, जबकि सरकार को हालातों की पूरी जानकारी है। तेजकिशन अपने किसी संबंधी के बेटे वीर जी भट्ट का हवाला देते हुए बताते हैं कि उसका चयन टीचर के लिए हुआ था और वह इंटरव्यू के लिए श्रीनगर गया था, लेकिन वहां से वीर जी भट्ट जिंदा लौटकर नहीं आया। डॉ चौधरी कहते हैं- 'इन हालातों में तो बस हम यही कह सकते हैं कि हम अपना संघर्ष जारी रखेंगे, आयरलैंड और इस्राईल की मिसाल देते हुए डॉ. चौधरी कहते हैं कि जब कश्मीर का फैसला हो जाएगा तो कश्मीरी पंडितों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे यहां के मूल निवासी हैं।'
गुग्लुसा गांव, कुपवाड़ा के निवासी प्रेमनाथ भट्ट कहते हैं कि `राहत शिविर असल में हमारे गुजारे की जगह नहीं हो सकती, हमें तो कश्मीर में अपनी जमीन मिल जाती तो बेहतर होता।´ प्रेमनाथ के तीन बच्चे हैं जो अभी पढ़ रहे हैं, जबकि भाई के बच्चे ओवर-एज हो गए हैं और उन्हें नौकरी नहीं मिल सकी है। प्रेमनाथ बताते हैं कि `बच्चे खुद को नफ़रत भरी नजरों से देखते हैं। बच्चों के भविष्य की ओर देखते हैं तो लगता है कि सब खत्म हो गया है, कहीं खुदकुशी न करनी पड़े।´
पंडिता बताते हैं कि यहां कश्मीरी पंडितों का विभिन्न स्तरों पर जितना मानवाधिकार हनन हुआ उतना कहीं नहीं हुआ होगा। वे सवाल उठाते हैं कि क्या भिन्न-भिन्न समुदायों का मानवाधिकार अलग अलग होता है। वे कहते हैं कि `इस भेदभाव के बावजूद भी इस समुदाय के लोगों ने धैर्य नहीं खोया। आर.के. पंडिता कहते हैं कि 20 सालों में किसी कश्मीरी पंडित ने प्रतिशोध में बंदूक नहीं उठाई, क्योंकि इस समुदाय के लोगों ने गन-मूवमेंट की बजाय पेन-मूवमेंट को अधिक तरजीह दी है, लेकिन सरकार हमारी बात नहीं सुनती, वह तो सिर्फ बंदूक के इशारों पर चलती है। यहां तक कि लोगों को प्रशासनिक आतंकवाद का भी सामना करना पड़ा है।´ डॉ. के.एल. चौधरी इस तरह के भेदभाव को अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति बताते हुए कहते हैं कि इससे जातीय भेदभाव को गहराता जा रहा है। हमें सिर्फ इसलिए कश्मीर से बाहर निकाल दिया गया, क्योंकि हम सच्चे भारतीय हैं, जिन्हें एजेंट का नाम दिया जाता है। ये देश के लिए अच्छी बात नहीं है। डॉण् चौधरी मीडिया पर भी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि मीडिया स्टोरी-बैंलेस करने के फेर में मुद्दे की बात ही नहीं करता, यह `वन-साइडेड मीडिया´ है। डॉ. चौधरी इस समस्या को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जोड़कर देखते हैं और सरकार तथा राजनेताओं की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि क्यों चरमपंथ पर सरकार मौन है? आखिर न्यूक्लियर डील मुस्लिम विरोधी कैसे है? यासिन मलिक जैसे लोगों को इंडिया कान्क्लेव में भाषण देने के लिए बुलाने से आखिर लोकतंत्र की क्या गरिमा बचती है? उनसे पूछा जाता है कि आप लोगों कि मांगे क्या हैं? जवाब में वे कहते हैं कि इतने सालों के बाद भी हमें माईग्रेटेड कहा जाता है, जबकि हम लोगों को इंटरनली डिस्पलेस्ड पीपुल्स का दर्जा दिया जाना चाहिए और इसी आधार पर संयुक्त राष्ट्र के मानकों के अनुसार व्यावहार होना चाहिए, क्योंकि माईग्रटेड तो वे लोग कहे जाते हैं जो अपनी इच्छा से रोजी रोटी की तलाश में घर छोड़ते हैं। यहां तो जबरन हम लोगों को निकाला गया है।
सरकार कैम्पों में कुछ राहत देती है, स्कूल और डिस्पैन्सरी भी बनी है और अब तो कुछ फ्लैट भी बन रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कश्मीरी पंडितों के लिए उनकी अपनी जन्मभूमि पर लौटने की संभावनाएं समाप्त की जा रही हैं? डॉ. के.एल. चौधरी इस पर कहते हैं कि यह तो सभी जानते हैं कि ये फ्लैट गिने-चुने लोगों के लिए ही होंगे, क्योंकि इससे समस्या खत्म नहीं होगी। जबकि सरकार को यह कहने का अवसर मिल जाएगा कि कैम्प खत्म अर्थात समस्या भी खत्म और इस तरह से सरकार अपनी जिम्मेदारी को ताक पर रख इस समस्या से हाथ धो लेना चाहती है। मजबूरन लोगों ने अपनी जमीनों को बेचना शुरु कर दिया है।
कश्मीरी पंडितों की मांग है कि कश्मीर में उन्हें भी मुसलमानों के समान ही अधिकार और हमारा हक दिया जाय। ये लोग कश्मीर वापस तो जाना चाहते हैं लेकिन पहले कि तरह बिखर कर नहीं रहना चाहते, बल्कि अब वे वहां पृथक होमलैण्ड की मांग कर रहे हैं जो कि भारत के संविधान तथा केन्द्र के शासनाधीन हो, क्योंकि राज्य सरकार से इन लोगों की आस्था भंग हो चुकी है। डॉ.चौधरी कहते हैं कि सरकार इस पर कभी कोई सकारात्मक जवाब नहीं देती, असल में वह चरमपंथियों से डरती है और कश्मीर में वह मुसलमान चरमपंथियों का सामना करने की हिम्मत नहीं रखती।
गुग्लुसा गांव, कुपवाड़ा के निवासी प्रेमनाथ भट्ट कहते हैं कि `राहत शिविर असल में हमारे गुजारे की जगह नहीं हो सकती, हमें तो कश्मीर में अपनी जमीन मिल जाती तो बेहतर होता।´ प्रेमनाथ के तीन बच्चे हैं जो अभी पढ़ रहे हैं, जबकि भाई के बच्चे ओवर-एज हो गए हैं और उन्हें नौकरी नहीं मिल सकी है। प्रेमनाथ बताते हैं कि `बच्चे खुद को नफ़रत भरी नजरों से देखते हैं। बच्चों के भविष्य की ओर देखते हैं तो लगता है कि सब खत्म हो गया है, कहीं खुदकुशी न करनी पड़े।´
पंडिता बताते हैं कि यहां कश्मीरी पंडितों का विभिन्न स्तरों पर जितना मानवाधिकार हनन हुआ उतना कहीं नहीं हुआ होगा। वे सवाल उठाते हैं कि क्या भिन्न-भिन्न समुदायों का मानवाधिकार अलग अलग होता है। वे कहते हैं कि `इस भेदभाव के बावजूद भी इस समुदाय के लोगों ने धैर्य नहीं खोया। आर.के. पंडिता कहते हैं कि 20 सालों में किसी कश्मीरी पंडित ने प्रतिशोध में बंदूक नहीं उठाई, क्योंकि इस समुदाय के लोगों ने गन-मूवमेंट की बजाय पेन-मूवमेंट को अधिक तरजीह दी है, लेकिन सरकार हमारी बात नहीं सुनती, वह तो सिर्फ बंदूक के इशारों पर चलती है। यहां तक कि लोगों को प्रशासनिक आतंकवाद का भी सामना करना पड़ा है।´ डॉ. के.एल. चौधरी इस तरह के भेदभाव को अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति बताते हुए कहते हैं कि इससे जातीय भेदभाव को गहराता जा रहा है। हमें सिर्फ इसलिए कश्मीर से बाहर निकाल दिया गया, क्योंकि हम सच्चे भारतीय हैं, जिन्हें एजेंट का नाम दिया जाता है। ये देश के लिए अच्छी बात नहीं है। डॉण् चौधरी मीडिया पर भी सवाल उठाते हैं। वे कहते हैं कि मीडिया स्टोरी-बैंलेस करने के फेर में मुद्दे की बात ही नहीं करता, यह `वन-साइडेड मीडिया´ है। डॉ. चौधरी इस समस्या को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में जोड़कर देखते हैं और सरकार तथा राजनेताओं की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि क्यों चरमपंथ पर सरकार मौन है? आखिर न्यूक्लियर डील मुस्लिम विरोधी कैसे है? यासिन मलिक जैसे लोगों को इंडिया कान्क्लेव में भाषण देने के लिए बुलाने से आखिर लोकतंत्र की क्या गरिमा बचती है? उनसे पूछा जाता है कि आप लोगों कि मांगे क्या हैं? जवाब में वे कहते हैं कि इतने सालों के बाद भी हमें माईग्रेटेड कहा जाता है, जबकि हम लोगों को इंटरनली डिस्पलेस्ड पीपुल्स का दर्जा दिया जाना चाहिए और इसी आधार पर संयुक्त राष्ट्र के मानकों के अनुसार व्यावहार होना चाहिए, क्योंकि माईग्रटेड तो वे लोग कहे जाते हैं जो अपनी इच्छा से रोजी रोटी की तलाश में घर छोड़ते हैं। यहां तो जबरन हम लोगों को निकाला गया है।
सरकार कैम्पों में कुछ राहत देती है, स्कूल और डिस्पैन्सरी भी बनी है और अब तो कुछ फ्लैट भी बन रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कश्मीरी पंडितों के लिए उनकी अपनी जन्मभूमि पर लौटने की संभावनाएं समाप्त की जा रही हैं? डॉ. के.एल. चौधरी इस पर कहते हैं कि यह तो सभी जानते हैं कि ये फ्लैट गिने-चुने लोगों के लिए ही होंगे, क्योंकि इससे समस्या खत्म नहीं होगी। जबकि सरकार को यह कहने का अवसर मिल जाएगा कि कैम्प खत्म अर्थात समस्या भी खत्म और इस तरह से सरकार अपनी जिम्मेदारी को ताक पर रख इस समस्या से हाथ धो लेना चाहती है। मजबूरन लोगों ने अपनी जमीनों को बेचना शुरु कर दिया है।
कश्मीरी पंडितों की मांग है कि कश्मीर में उन्हें भी मुसलमानों के समान ही अधिकार और हमारा हक दिया जाय। ये लोग कश्मीर वापस तो जाना चाहते हैं लेकिन पहले कि तरह बिखर कर नहीं रहना चाहते, बल्कि अब वे वहां पृथक होमलैण्ड की मांग कर रहे हैं जो कि भारत के संविधान तथा केन्द्र के शासनाधीन हो, क्योंकि राज्य सरकार से इन लोगों की आस्था भंग हो चुकी है। डॉ.चौधरी कहते हैं कि सरकार इस पर कभी कोई सकारात्मक जवाब नहीं देती, असल में वह चरमपंथियों से डरती है और कश्मीर में वह मुसलमान चरमपंथियों का सामना करने की हिम्मत नहीं रखती।
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