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Saturday, May 3, 2008


मरुभूमि में आशा और आस्था की नदी
उमाशंकर मिश्र/सांचौर से लौटकर
नहर में पानी कैसे आता है? इस तरह का सवाल कोई नादान बच्चा ही कर सकता है। लेकिन जालौर जिला राजस्थान की सांचौर तहसील के लोगों ने जब ये सुना की उनके इलाके में नहर का पानी आने वाला है और इससे उनकी रेगिस्तानी धरती लहलहा उठेगी तो जिज्ञासावश लोगों ने इसी तरह के सवाल वहां कार्यरत इंजीनियरों से पूछने शुरु कर दिये। जिससे उन लोगों के भोलेपन का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। साथ ही यह भी पता चलता है कि पानी के नहर जैसे स्रोतों तक के बारे में स्थानीय लोगों में जानकारी का अभाव था। इस तरह मरुभूमि राजस्थान के दूरदराज इलाके में पानी की दुर्लभता और इसके चलते जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभाव की कहानी का पता चलता है। कुछ समय पूर्व जब गुजरात के सरदार सरोवर बांध से नर्मदा नहर निकाल कर राजस्थान की प्यासी धरती कोतर की करने की चर्चा छिड़ी थी, तो इस मरुभूमि के निवासियों मे एक नई आस जगने लगी थी। लेकिन अन्य परियोजनाओं की तरह जब लम्बे समय तक कार्ययोजना पर अमल नहीं हो पा रहा था स्थानीय बुजुगोZं की अपनी धरती पर पानी देखने की आस छूटने लगी थी, कुछेक बुजुगोंZं ने तो यहां तक कहना शुरु कर दिया था कि अब शायद मेरे मरने के बाद ही इस नहर में पानी आयेगा।
राजस्थान में 1993 में नर्मदा नहर का काम शुरु किया गया था। सरदार सरोवर बांध से राजस्थान की सीमा तक नर्मदा नहर का 458 किलोमीटर मार्ग तैयार करने के लिए गुजरात सरकार को राजस्थान सरकार की ओर से एक निश्चित राशि का भुगतान करना था। उस समय परियोजना की लागत करीब 467ण्53 करोड़ रुपये आंकी गई थी। इस परियोजना को 2002-2003 में ही पूरा हो जाना था। लेकिन समय पर राशि काभुगतान न हो पाने से परियोजना की लागत बढ़ती चली गई। 2004 में गुजरात सरकार को बकाया 335 करोड़ रुपये की राशि का भुगतान कर दिया गया। जिससे परियोजना के काम में तेजी आई और नतीजा आज इसका पानी राजस्थान के जालौर जिले की सांचौर तहसील के सीलू गांव में पहुंच चुका है। वर्तमान में परियोजना का कार्य पूर्ण गति से चल रहा है और 1975 करोड़ रुपये की संशोधित अनुमानित लागत के साथ इसे 2009-10 में पूर्ण किये जाने की बात कही जा रही है। परियोजना में सतही प्रवाह प्रणाली एवं लिट सिस्टमदोनों का प्रयोग किया गया है। परियोजना में 74 किलोमीटर लम्बी मुख्य नहर एवं 1719 किलोमीटर लम्बी वितरण प्रणाली का निर्माण किया जा रहा है। परियोजना में अब तक मुख्य नहर का काम पूरा हो चुका है। सतही प्रणाली 932 किलोमीटर लम्बी होगी। फिलहाल 535 किलोमीटर लम्बी सतही वितरण प्रणाली और 94 किलोमीटर लम्बी जलोत्थान वितरण प्रणाली का कार्य पूर्ण कर लिया गया है। इस परियोजना से जालौर एवं बाड़मेर जिले के 233 गांवों की 2ण्46 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो सकेगी।
सांचौर तहसील के गांव डेड़वा निवासी करीब 60 वषीZय हरिराम बिश्नोई बताते हैं कि उन्होंने बचपन से ही पानी को लेकर इस इलाके में अभाव देखा है, जो आज भी कायम है। वे बताते हैं कि यहां का पानी बहुुत खारा है। पीने का पानी लेने के लिए उन्हें 15 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है अथवा 300 रुपये से लेकर 500 रुपये तक की लागत से टैंकर मंगाया जाता है। इस तरह टैंकर से लाये गये पानी को घर के पास बनाये गये टांके में इकट्ठा कर लिया जाता है। पानी की मात्रा बढ़ जाये इसलिए टैंकर द्वारा लाये गये पानी में कुछ खारा पानी मिलाकर उपयोग किया जाता है। इस तरह एक टैंकर से करीब सप्ताह भर काम चल जाता है। पशुओं का भी वही पानी पिलाया जाता है। अमूमन सभी घरों में इसी तरह की देखने को मिलती है। आज जब महंगाई के जमाने में आटा दाल लोगों केे लिए मुश्किल होता जा रहा है, वहीं यदि पानी के लिए भी इस तरह से कीमत चुकानी पड़ती हो तो परिस्थितियों का अंदाजा स्वत: ही लगाया जा सकता है।
20 बीघे के काश्तकार हरिराम बताते हैं कि खेती हमारे यहां पूरी तरह से वषाZ पर निर्भर है। पानी खारा है इसलिए पम्प सैट से भी सिंचाई नहीं की जा सकती। इस तरह देखा जाय तो सिंचाई न हो पाने से इलाके में कृषि न के बराबर ही देखने को मिलती है। वरुण देव की कृपा हुई तो बाजरा, ग्वार इत्यादि की फसल मिल जाती है। पिछले दो सालों से वषाZ की अनियमितता से वह भी ठीक से नहीं प्राप्त हो सका है। परियोजना अधिकारी आरण्सीण् गुप्ता बताते हैं कि इस जमीन में 10 से 12 फुट नीचे लवणीयता है और यदि सतही सिंचाई की जाती है तो इससे न केवल पानी अधिक व्यय होगा बल्कि जमीन की उपजाऊ शक्ति पूरी तरह से क्षीण हो जाने की संभावना बढ़ जायेगी। इसलिए िस्प्रंकलर सिस्टम पर जोर दिया जा रहा है। इस बात को लोग भी जानते हैं। गुप्ता बताते हैं कि स्थानीय लोग पहले से ही फव्वारा प(ति से सिंचाई करते रहे हैं।
बागचन्द्र बिश्नोई भी करीब 50 बीधे के काश्तकार हैं। लेकिन इतनी जमीन होने के बावजूद सिंचाई की समस्या के चलते उनके खेत प्यासे ही रहे। वे कहते हैं कि यदि कहीं मीठे पानी का कुंआ मिल भी जाता है तो तीन चार महीने बाद नये कुएं की तलाश करनी पड़ती है, क्योंकि उस कुएं का पानी या तो खारा होने लगता है यह फिर सूख जाता है। इसी के चलते इस रेगिस्तानी इलाके में पशुपालन लोगों का मुख्य व्यावसाय रहा है। बकौल बागचंद्र बिश्नोई फसल अच्छी नहीं होने से कभी कभी तो छ: महीने का भी राशन नहीं निकल पाता है। किसानी यहां कोई मायने नहीं रखती थी, ऐसे में लोगों मजदूरी करनी पड़ती थी। लेकिन नहर का पानी आ जाने से अब लोगों की आंखों में एक नई तरह की चमक देखने को मिलती है। उनमें एक आस जगी है। इसी आस के भरोसे अब लोग कहते हैं कि `हम तो कमर कस कर तैयार बैठे हैं, कब पानी मिलना शुरु हो और हम खेती कर सकें।´ पानी मिलने से ज्वार, मोठ और हाईब्रिड बाजरा जैसी तीसरी फसल के बारे मेें भी लोग सोचने लगे हैं। जरा सी उम्मीद दिखाई देने पर मन कितनी ही परिकल्पनाएं गढ़ लेता हैऋ यह सांचौर के लोगों से बतियाने पर साफ झलकता है कि उन्होंने नहर के पानी को लेकर न जाने क्या क्या अपने मन में सोच रखा है।
आरण्सीण् गुप्ता बताते हैं कि जब हम यहां काम करने के लिए आते थे तो लोगों को विश्वास नहीं होता था कि नहर का काम कभी पूरा हो सकेगा। लोग खुंटियां उखाड़ देते थे और हमें भगा देते थे। लेकिन जब लोगों को नहर में पानी आने की खबर मिली तो दूर दूर से आये देखने वालों का तांता लग गया। हर कोई सबसे पहले उस दृश्य को अपनी आंखों में कैद कर लेना चाहता था तो कोई उस पानी को छू लेना चाहता था। जिससे वह वापस जाकर बता सके कि उसने सबसे पहले नहर के पानी को छुआ है। शीतला सप्तमी को रणोदर गांव के मेले में लोगों ने नर्मदा नहर के पानी को चरणामृत की तरह बांटा। मीठी बेरी में ढोल नगाड़ों से तो महिलाओं ने कलश यात्रा निकाल कर नहर का स्वागत किया।
यह अब मात्र नहर नहीं रह गई है इस थोड़े से समय के दौरान ही नर्मदा नहर मरुभूमि के लोगों के बीच आस्था का पर्याय बनती जा रही है। दूल्हा बारात लेकर जाने से पूर्व अब इस आस्था की नदी में नारियल प्रवाहित करना चाहता है, जिससे शुभ कार्य में कोई विष्न न हो। बुजुर्ग कहते हैं कि पहले जब किसी का देहांत हो जाता था तो हम उसे गंगा जी लेकर जाया करते थे और वहां से गंगाजली भर कर लाया करते थे। लेकिन आज वे यह बताते हुए भावुक हो जाते हैं कि गंगा मइया आज उनकी देहरी पर आ गई हैं। सबकी अपनी अपनी मंशाएं हैं। 60 वर्ष की उम्र पार कर चुके भीखाराम कहते हैं कि हमारे यहां तो तीर्थ यहीं आ गया अब हमें गंगा जी जाने की जरूरत नहीं है। किसान नहर के पानी को देखकर अपने लहलहाते हुए खेतों का ख्वाब संजोने लगते हैैैं तो महिलाएं सिर पर गागरी रख कर पानी ढोने की बात को अब भुला देना चाहती हैं। जबकि बच्चे बहते हुए पानी में किल्लोल करना चाहते हैं, छपा-छप खेलना चाहते हैं। यह जीवन से पानी के सरोकार की कहानी है, जो बताती है कि `जल ही जीवन है´।
फव्वारा पद्धति से सिंचाई की क्रांतिकारी पहल

रेगिस्तान में पानी का मोल क्या होता है, यह तो स्थानीय लोग ही समझ सकते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए नर्मदा नहर के पानी के दक्षतापूर्ण उपयोग की रणनीति तैयार की गई हैऋ जिससे पानी के अपव्यय को रोका जा सके। जल के दक्षतापूर्ण उपयोग हेतु परियोजना में फव्वारा पद्धति के उपयोग को अनिवार्य किया गया है। इस हेतु डििग्गयों के निर्माण एवं प्रत्येक डिग्गी पर पम्प सेट की स्थापना का कार्य परियोजना लागत में सिम्मलित किया गया है। डिग्गी से किसानों के खेत तक पानी पहुंचाने के लिए पारंपरिक जल धोरों के स्थान पर भूमिगत पाईप लाईनें बिछाई जा रही हैंं। इससे पानी की क्षति को रोका जा सकेगा। जिससे सिंचाई क्षेत्र में वृद्धि होगी। अब तक 30 हजार हैक्टेयर भूमि में पाईपलाईन बिछाने का कार्य किया जा चुका है जो सिंचाई के लिए तैयार है। परियोजना में डिग्गी निर्माण, पिम्पंग यूनिट की स्थापना एवं डिग्गी से कृषकों के खेत तक पाईप लाईन बिछाने के कार्य पर 13,500 रुपये प्रति हैक्टेयर की अनुमानित लागत आंकी गई है। कृषकों द्वारा िस्प्रंकलर सैट के माध्यम से अपने खेत में सिंचाई की जायेगी, इसके लिए 50 प्रतिशत खर्च राज्य सरकार द्वारा वहन किया जा रहा है। बिजली की लुका-छिपी का इस कार्यप्रणाली पर प्रभाव न पड़े इसके लिए परियोजना क्षेत्र में बिजली की विशिष्ट लाईनों का जाल भी बिछाया गया है। मुख्य परियोजना अधिकारी एन आर राय के मुताबिक यह भारत ही नहीं अपितु दुनिया का इतने बड़े पैमाने पर शुरु किया जाने वाला िस्प्रंकलर सिस्टम होगा।

1 comment:

Pankaj Narayan said...

स्टोरी अच्छी लगी। शहर के परायपन को भोगते हुए गांव को जीना और विकास की दौर का रास्ता गांव तक पहुंचाना एक जरुरी काम है...इसके लिए उठते हुए हर कदम का स्वागत।
पंकज नारायण