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Wednesday, May 7, 2008


गांधीवाद, गीता दर्शन और गाँधीगीरी
गौर करें तो हम पाएंगे कि पहली नज़र में गांधीवाद हिन्दू धर्म पर आधारित नज़र आता है। गांधी जी का भी कहना था कि उनके सिद्धांत गीता पर बहुत हद तक आधारित हैं। निर्विवाद रूप से गीता आध्यात्मिक साहित्य के महानतम रत्नों में से एक है और हिन्दू धर्म का आधार ग्रंथ है। एक ओर गीता जहां अहिंसा की बात करती है तो दूसरी ओर हिंसा को दूसरी ओर परिस्थितिवष गीता जरूरी भी मानती है। लेकिन गांधीजी ने गीता से केवल अहिंसा का सिद्धांत लेकर बाकी सब कुछ नकारने की चेश्टा की है।गीता की पर दृष्टिपात करने से कहा जा सकता है कि गीता हर हालत में अहिंसा का प्रतिपादन नहीं करती है। अर्जुन तो खुद अहिंसा की बात कर रहा था। लेकिन भगवान कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित किया। लेकिन गांधी कहते हैं कि महाभारत का युद्ध ऐतिहासिक नहीं, वरन एक आध्यात्मिक घटना है।
महाभारत में मनुष्य की सद्व्रुतियों एवं बुरी वृत्तियों के बीच युद्ध को आलंकारिक तौर पर दर्शाया गया है। ऐसा अगर मान भी लिया जाए तो भी नहीं कहा जा सकता कि गीता में हिंसा निषेध किया गया है।
जहां सत्य और धर्म की रक्षा के लिए अहिंसा कारगर ना हो, वहां हिंसा जायज है। दरअसल गांधी जी का अहिंसा का सिद्धांत वह नहीं है, जो हिन्दू धर्म द्वारा प्रतिपादित है। बल्कि यह सिद्धांत ईसाईयत से उधार लिया गया है। जिन्होंने सत्य के प्रयोग पढ़ी है, वे जानते होंगे कि गांधी जी ईसाईयत से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने इंग्लैंड मेें ईसाईयत अपनाने की इच्छा भी जाहिर की थी और बाईबल का विषेश अध्ययन किया। साथ ही उनका पालन पोशण जैन रीति रिवाजों हुआ। हिन्दू धर्म में अहिंसा का सिद्धांत लचीला है। अथाZत् अपरिहार्य कारणों में हिंसा को गलत नहीं माना गया है।
मनुस्मृति में भी कहा गया है कि यदि ब्राम्हण भी आपको ‘ाारीरिक हानि पहुंचाने की मंषा से आए तो उसकी हत्या करना पाप नहीं है। अकर्मण्यता इस उधार के सिद्धांत का सहज फल है। इस तरह कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि गांधीवाद का यह सिद्धांत अकर्मण्यता को भी बढ़ावा देता है।
इस विशय पर स्वामी विवेकानंद का कथन उल्लेखनीय है कि ``ईसा मसीह ने यूरोप को सिखाया कि `किसी बैर मत करो, जो तुम्हे गाली दे( उसे आषीर्वाद दो, कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा भी आगे कर दो, सब कामकाजों को त्याग कर परलोक की तैयारी करो।´´
इसके विपरीत गीता ‘ात्रुओं के विनाष और महान उत्साह से काम करने की प्रेरणा देती है। लेकिन ईसा जो चाहते थे, उसका ठीक उल्टा हो गया। यूरोपवासियों ने ईसा मसीह के ‘ाब्दों को ‘ाायद गंभीरतापूर्वक नहीं लिया। सदैव कार्यषील स्वभाव अपनाकर अत्यंत प्रचण्ड रजोगुण से सम्पन्न होकर वे बड़े उत्साह और युवकोचित उत्सुकता के साथ विष्व के विभिन्न देषों के सुख और विलासों को बटोर रहे हैं और मन भर कर उन्हें भोग रहे हैं। हम! हम एक कोने में बैठे, अपने सब साज सामान के साथ दिन रात मृत्यु का ही आन्हान कर रहे हैं और गा रहे हैं-
नलिनिदलगतजलमतितरलंतद्वज्जीवनमतियचपलम्
अथाZत् ``कमलपत्र पर पड़ी हुई जल की बूंदे जितनी चंचल और अस्थिर हैं उतनाही यह मानव जीवन क्षीण और चलायमान है।´´ इस सबका परिणाम हुआ है कि म ृत्युराज यम के भय से हमारी धमनियों का रक्त ठण्डा पड़ जाता है। अब कहो! गीता का उपदेष किसने सुना? यूरोपियनों ने। और ईसा की इच्छानुसार कौन आचरण कर रहे हैंं? भगवान कृश्ण के वंषज। यूरोपवासियों ने ईसा के उन वचनों का परित्याग कर दिया और संतोश की सांस ली। लेकिन हम अन्जाने में आज तक उससे चिपके हुए हैं। इस तरह से देखा जाए तो भारत में एक बार फिर रजोगुण उद्दीप्त हो रहा है और यही कर्माकांक्षा हिन्दू हिन्दू धर्म और गीता का मूल है। ऐसे में गांधीगिरी के ये उपदेष हमें फिर एक बार अकर्मण्यता की ओर धकेल देगें। जिससे निकलने का हम यत्न कर रहे हैं। हालांकि गांधीवाद बिल्कुल बेकार हो, ऐसा नहीं है। लेकिन उसका दायरा बहुत सीमित है और व्यापक तौर पर उसका प्रयोग करना ठीक उसी तरह मूर्खतापूर्ण होगा, जिस तरह से सब्जी काटने के चाकू का इस्तेमाल युद्धक्षेत्र में करना। हिन्दू धर्म के गीता में प्रतिपादित सिद्धांत हर देष-काल कार्य रूप में परिणत किए जा सकते हैं और गांधीगिरी की तरह सीमित नहीं है।
इस तरह कहा जा सकता है कि वर्तमान संदर्भ में गांधीवाद जैसी चीजें कतई कारगर नहीं हो सकतीं पर यदि राजनीति के चरित्र की बात करें तो उस संदर्भ में वाकई आज गांधीवाद मनन करने की आवष्यकता है। गांधीवाद यों भी जीवनषैली नहीं अपितु विचारधारा है। वह कोई हरा नहीं, दिषा प्रदषZक है। मगर रास्ते के पत्थरों एवं गड्ढों का अगर आप ख्याल ना रहें तो दिषा निर्देषक की क्या गलती।

2 comments:

ab inconvenienti said...

इस देश को गांधीवाद और गाँधी के लगुओं-भगुओं छुटभैयों ने कितना ज़्यादा बर्बाद किया है कहना मुश्किल है. संयोग से मैंने कुछ दिनों पहले ही ओशो की 'गाँधी पर पुनर्विचार' और 'भागवतगीता का मनोविज्ञान' पूरी कीं. गाँधी ने तो यह तक कह दिया था की गिरा दो खजुराहो के मंदिरों को, ये हमारी विरासत नहीं हैं, किन्हीं विकृत मस्तिष्क वालों की सोच है ये सब.

उमाशंकर मिश्र said...

ji har vyakti apne tarike se vyakhya karta hai. lekin satya ek hi hota hai ..