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Wednesday, May 7, 2008


आज हार गए नया दौर के तांगे वाले
May 03, 12:41 am
बुलंदशहर। जिस तांगे ने बसंती की इज्जत बचाई, नया दौर में जिसने मोटर को मात दी, एक बेसहारे को मर्द तांगेवाला बनाकर जीने का सहारा दिया, उसके सहारे जिंदगी की गाड़ी खींचने वाले तांगे-इक्केवान आज मोटरों की होड़ में थके-हारे नजर आ रहे है। जिन्होंने लगाम अभी भी थाम रखी है, उनके पास या तो कमाई का दूसरा जरिया नहीं है या वे बाप-दादा की विरासत को जिंदा रखने का संकल्प पूरा करने की जद्दोजहद में लगे हुए है।
एक समय था, जब दो सौ से भी ज्यादा तांगे मोतीबाग से काहिरा, मरगूपुर और जालखेड़ा, मचकौली, मुगलपुरा, धीमरी, दोस्तपुर जैस देहात के इलाकों समेत शहर के सभी रूटों पर चलते थे। आज इनकी संख्या सभी रूटों को मिलाकर चार-छह दर्जन है तो, लेकिन स्थिति एकदम पलट गई है। अब वही लोग तांगे पर बैठते है, जिन्हे या तो दूसरा साधन नहीं मिलता या जिनके रूट पर ऑटो नहीं चलते। नया दौर में तो दिलीप कुमार मोटर से आगे निकल गए थे, लेकिन आज इनका मुकाबला तीन सौ से ज्यादा ऑटो, करीब पांच सौ जुगाड़ व दोपहिया-चौपहिया जैसे निजी वाहनों से है। इसलिए आगे निकलने और उनके साथ चलने की बात ही नहीं सोची जा सकती।
तांगे वालों के हालात पर बात करे तो अनूपशहर बस अड्डे से कालाआम तक चलने वाले चिक्सान निवासी हरपाल का दस लोगों से ज्यादा का परिवार है। कूबत न होने से मां-बाप पढ़ा तो पाए नहीं और जब जिम्मेदारी आई तो कमाई के लिए वही पुश्तैनी धंधे घोड़े और लगाम का सहारा दिखा। शुरुआत में तो किसी तरह गाड़ी चलती रही, लेकिन अब आलम यह है कि सौ रुपये से ज्यादा घोड़े के घास और दाने का ही खर्चा आता है। हरपाल कहते है कि आज तांगा ही दस हजार में मिलता है। घोड़ा खरीदना तो और मुश्किल, लिहाजा कई लोग खच्चर से काम चलाते है। खर्चा न निकलने की वजह से इनके गांव के तीस से ज्यादा तांगे वालों ने मजूदरी की राह पकड़ ली।
दूसरा काम न आने, खेती के लिए जमीन और व्यापार के लिए जरिया न होने से तांगे वाले एक तरह से कुंआ खोदकर पानी पी रहे है। इसी के चलते कालाआम चौराहे अनूपशहर अड्डे तक ऑटो प्रति सवारी जहां पांच रुपये लेता है, वहीं तांगे वाले तीन रुपये लेकर सवारियों का जुगाड़ करते है। तीस साल से तांगा हांक रहा सराय निवासी अल्लाह राजी विकलांग है। पांच बेटियों की शादी के लिए पचास हजार का कर्जा लिया था। उसे कैसे चुकाएगा के सवाल पर ऊपर वाले की ओर हाथ उठाता है। राजी कहते है कि किसी-किसी दिन एक ही फेरा लग पाता है और मिलते है मात्र पचास रुपये। ऐसे में क्या खुद खाएं और क्या परिवार वालों को खिलाएं। दिनभर जाड़ा, गर्मी, बरसात सहने के बावजूद कुछ नसीब न होने की वजह से इनके गांव में 50 की जगह आज दो तांगे वाले बचे है। एक तो सवारी नहीं, दूसरे पुलिस वाले अलग डंडा फटकारते है। सामान ढोने का काम अभी जहां-तहां मिल जाता है, लेकिन भार वाहन इसे भी अपना निवाला बना रहे है। तांगेवान सुरेश कहता है कि मेहनत करके भी रोटी मिलने का जरिया छिन जाए तो कैसा सुराज? सरकार कुछ न करे तो कम से कम हम लोगों की रोजी पर लात तो न मारे। कोई रूट तय कर दे, जिससे हमारा गुजर हो सके। बहरहाल, बग्घी और घोड़े कभी शान-शौकत की सवारी मानी जाती थी। मेले-ठेलों और इलाहाबाद आदि कुछ शहरों सावन में घोड़े-तांगों की दौड़ प्रतियोगिता होती थी। अब तो फिल्मों में भी बसंती तांगे वाली और मर्द तांगे वाला नजर नहीं आता। धूल-धक्कड़ से दूर वह सुरक्षित सवारी आज जल्दी की दौड़ में न केवल पीछे छूटती जा रही है, बल्कि तांगे-इक्के की ग्रामीण संस्कृति और उसे जीवित रखने वाले तांगेवानों
की रोजी-रोटी पर भी ग्रहण लग गया है।
साभार : याहू.कॉम

2 comments:

ashutosh said...

The imagination and the expression used to potray the picture is really excellent.
I am impressed the way story has been carried till the end.

Keep it up!!!! Good Work

उमाशंकर मिश्र said...

than you sir .... aapke protsahan ki hamesha jarurat hogi..