मेरा गाँव मेरा देश

Thursday, May 8, 2008

गाँव
लेखक -रोहित
खेत मुझे कभी अपने नहीं लगे सदा एक दूरी बनी रही
जैसे गांवों से जुदा-जुदा रहा पूरी उम्र शहर में जन्म हुआ,परवरिश हुई / शहर की परिधि पर खेत थे
लेकिन, लगातार कम होते जाने को अभिशप्त शहर में गांव वाले ही ज़्यादा थे और उनके बीच भी मैं कैसे शहरी हो गया यह अब भी एक अनसुलझा सवाल बना हुआ है मेरे लिए ऐसा नहीं था कि/ उन्होंने गांवों को उनकी जगह पर ही छोड़ दिया
वे उन्हें शहर लेकर आए थे जितना बसों और रेलगाड़ियों में अंट सकता था / भाषा भी लाए थे वेखरी-खरी, जीवित और जीवंत और पुरानी मकई के कुछ बोरे,ठसक भरी धूप/ घनी हरियाली,जलावन की आग जो ठंड को मज़ेदार बना देती है और सरसों के तेल की तीखी गंध क्यों बेअसर रहा / यह सबकुछ मुझ परइसके कारणों की / कोई शिनाख़्त नहीं हो सकी इन दिनों छपरा, मुजफ़्फ़रपुर / बेगसूराय, समस्तीपुर परभारी पड़ रहा है पटना और पटने पर / भारी पड़ रही है दिल्ली शायद, गांवों के लुप्त होने की कथायहीं से शुरू होती शहरों में छोटे-छोटे गांवों के बनने की भी उतना भी गांव नहीं हैमेरे भीतर जितना मेरे शहर में मौजूद है मुझे गांव जाना है मुझे खेतों को अपना बनाना है़

संपर्क : द्वारा, समकालीन जनमत, मदनधारी भवन, एसपी वर्मा रोड, पटना-800001

2 comments:

Anonymous said...

Nice Post !
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उमाशंकर मिश्र said...

utsahvardhan ke liye shukriya..... mai takniki prayogon ka bahut abhyast nahin hun...kripya margdarshan karen...ujjas ke liye aap bhi contribute karege to achha rahega.