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Monday, January 14, 2008

गंगा जैसी बालिकाएं शिक्षा से वंचित क्यों?
धर्मग्रंथों में यह उल्लेख है कि प्राचीनकाल में भगवान शिव ने गंगा नदी को अपने सिर पर धारण कर उसका मान-सम्मान बढाया था। कहते है, गंगा के किनारे आकर कोई निराश नहीं होता। बहरहाल, हम यहां जिस गंगा का जिक्र कर रहे हैं, वह कोई नदी नहीं, बल्कि एक मूक-बधिर आदिवासी बालिका है, जो अपने लिए सरकार की मदद का इंतजार कर रही है। गरीबी, अभाव, अशिक्षा से संघर्ष करती ग्रामीण परिवेश की इस बालिका को एक ऐसे किनारे की तलाश है, जहां उसका जीवन बेहतर बनाए जाने की बुनियाद रखी जा सके। जाहिर है यह बुनियाद गंगा को पढाई-लिखाई से जोडकर रखी जा सकती है। गंगा खुद भी स्कूल जाना चाहती है, लेकिन आज तक उसको किसी स्कूल में प्रवेश नहीं मिल पाया है। आदिवासी बालक-बालिकाओं को शिक्षा से जोडने के लिए जो कार्यक्रम प्रदेश में संचालित किए जा रहे हैं, वे अभी गंगा जैसी जरूरतमंद बालिकाओं तक नहीं पहुंच पाए हैं।मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले झाबुआ के पेटलावद विकासखंड अंतर्गत कासबी नामक गांव में गंगा का पालन-पोषण उसके परिवारजनों द्वारा किया जा रहा है। उसके पिता गोविंद पारधी कहते हैं, बाबूजी, यह न तो बोल सकती है न सुन सकती है, इसे दिखाई भी कम देता है, लेकिन समझती खूब है। यह पढना चाहती है। मैं इसे पढाने के लिए जहां-जहां जाकर फरियाद कर सकता था, कर चुका हूं। कोई नतीजा नहीं निकला। फिलहाल तो गंगा समझदारी के साथ घर का कामकाज करती है, लेकिन आगे इसका क्या होगा? मैं चाहता हूं कुछ पढने-लिखने लायक हो जाए तो जिंदगी आराम से कटेगी। गोविंद का सवाल है कि क्या गंगा जैसी मूक-बधिर बालिकाओं को पढाने-लिखाने के लिए कोई स्कूल है? यदि है, तो वहां गंगा को कैसे भर्ती किया जा सकता है।बता दें कि झाबुआ जिले में एक अकेली गंगा ही नहीं है, जो सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का किनारा ढूंढ रही है। केवल झाबुआ जिले के ही ग्राम नसिया, जोगडिया, धावली, पलासडी, धावल्या, देवली, छोटा सूलूनिया, सामली, कासबी, सारंगी, बरवेट जैसे अनेक गांवों के विकलांग बच्चे, आदिवासी बालिक-बालिकाएं स्कूल में प्रवेश नहीं ले पाए हैं। स्कूल में इन बच्चों के प्रवेश नहीं लेने के कुछ व्यक्तिगत या पारिवारिक कारण भी हो सकते हैं, लेकिन जो माता-पिता अपने बच्चों को पढाना चाहते हैं, वे गोविंद पारधी की तरह क्यों भटक रहे हैं।

साभार ः राज एक्स्प्रेस, 13 Jan, 2008 11:42 PM

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