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Monday, October 29, 2007

छोटी मगर असरदार पहल

उमाशंकर मिश्र
इंडिया फाउंडेशन फॉर रूरल डेव्लपमेंट स्टडीज
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देश में भूमिहीन कृषि-मजदूरों अथवा अल्प भूमि वाले किसानों की बहुत बड़ी संख्या है। पटना की नौबतपुर तहसील के गांव आजाद नगर की लालमुनी देवी भी ऐसे ही कृषकों की जमात का एक हिस्सा हैं। ऐसे कृषकों के पास खेती करने का हुनर और जज्बा तो होता है, लेकिन भूमिहीनता उन्हें बेबस बना देती है। मजबूरन उन्हें दैनिक मजदूरी कर अपना गुजर बसर करना पड़ता है। लेकिन लालमुनी देवी के साथ अब ऐसा नहीं है, क्योंकि उन्होंने अपने kaushal
बूते परिस्थितियों से लड़ना सीख लिया है। 40 लालमुनी देवी भले ही अल्प-षिक्षित हों, लेकिन उन्होंने भूमिहीनता के दंष का रोना नहीं रोया और घास-फूस से बने अपने घर की छप्पर को ही जीवन-यापन के साधन के तौर पर उपयोग करना सीख लिया। अब वे घर के गीले छप्पर में मषरूम की खेती करती हैं।
अपने इसी हुनर की बदौलत लालमुनी देवी आज न केवल अपने गांव की आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाने में सफल हुई हैं, बल्कि वे हजारों लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बन चुकी हैं। यही नहीं, की खेती के उनके इस अनूठे तरीके को सात समंदर पार भी सराहा गया। गेहूं और ज्वार पर रिसर्च करने वाले मैिक्सको स्थित एक प्रसिद्ध संस्थान ने श्रीलंका, पाकिस्तान, नेपाल, भूटान और भारत समेत सात एषियाई देषों के ऐसे 25 अग्रणी उद्यमीय कौषल वाले किसानों की सूची में लालमुनी देवी को सर्वोच्च स्थान दिया है।
अपनी इस उड़ान से पूर्व लालमुनी देवी को जीवन अत्यंत नीरस जान पड़ता था। आंखों से दुर्बल पति और एक विक्लांग बेटे समेत चार प्राणियों के परिवार का भरण-पोशण आसान नहीं था। बड़े बेटे की मजदूरी से जो थोड़ी बहुत आय होती थी, बस वही परिवार के गुजारे का सहारा थी।
लालमुनी देवी भले ही भूमिहीन हों, लेकिन मषरूम की खेती उनके जीवन में एक आषा की एक नई किरण बनकर आई। वे कहती हैं कि `ये तो मेरे लिए सोना-चांदी से कम नहीं है।´ यह सब बताते हुए लालमुनी भावुक हो जाती हैं, क्योंकि आज वे इस बात को लेकर आष्वस्त हैं कि अब उनकी बेटी के विवाह में कोई अड़चन नहीं आएगी। ऐसा आत्मविष्वास उन्हें मषरूम से होने वाली आय के कारण ही मिला है। हालांकि भूमिहीन लालमुनी देवी के लिए यह जानते हुए कि उनके पास जमीन नहीं है( मषरूम की खेती करने का फैसला आसान नहीं था। लेकिन उन्होंने हिम्मत नही हारी और 500 रुपये की छोटी से पूंजी से मषरूम उत्पादन का कार्य ‘ाुरु कर दिया।
गंगा किनारे के इस पूर्वी विषाल मैदानी भाग में जोतें आमतौर पर छोटी हैं और आबादी भी गरीब बहुल है। जहां लोग अपेक्षाकृत बड़े किसानों के खेतों में मेहनत-मजदूरी करके अपना जीवन-यापन करते हैं। चावल और गेहूं यहां की मुख्य फसलें हैं। बरसात के मौसम में चावल तो सिर्दयों के ‘ाुश्क मौसम में यहां गेहूं की खेती की जाती है। पटना से करीब घंटे भर का सफर तय करने पर ही स्थित है आजाद नगर गांव, जहां लालमुनी देवी का परिवार नमीयुक्त छप्पर वाले एक कमरे के घर में रहता है। उनके घर में प्रवेष करते ही अंदर हरेक कोने पर मषरूमों को देखा जा सकता है। ‘ाायद ही कोई स्थान बचा होगा जहां मषरूम न उगाया गया हो। इस सिलसिले की ‘ाुरुआत `इंडियन कौंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च संस्थान´ की पहल पर आयोजित एक ट्रेनिंग कार्यक्रम के दौरान हुई थी। इससे पहले लालमुनी देवी ने मषरूम के बारे में कभी सुना भी नहीं था। वे कहती हैं कि `हमें बताया गया था कि भारत के बड़े ‘ाहरों और विदेषों में भी इसकी काफी मांग है। ट्रेनिंग के पष्चात् उन्होंने इसे घर पर ही उगाने का फैसला कर लिया। ‘ाहर से अधिक दूरी नहीं होने के कारण लालमुनी देवी को अपने मषरूमों कोे बेचने के लिए बाजार भी आसानी से उपलब्ध हो गया। जिससे इस काम में उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। आज वे गांव की 20-25 महिलाओं के समूह को घर पर ही मषरूम उगाने की ट्रेनिंग भी देती हैं।
एक सवाल उठता है कि गेहूं और ज्वार के प्रोत्साहन देने वाली एक एजेंसी ने ही आखिर लालमुनी देवी के इस प्रयोग को सराहने की पहल की। वह इसलिए क्योंकि गेहूं के भूसे का उपयोग मषरूम के उत्पादन के लिए किया जाता है। गेहूं के भूसे और सड़ी हुई घास से बनाए गोलों में मषरूम उगाना नििष्चत तौर पर काबिलेतारीफ है। इस तरह के गोलों को एक पॉलीथीन में डालकर नमीयुक्त छप्पर के नीचे लटका दिया जाता है। ऑइस्टर प्रजाति के मषरूम के पोशण हेतु आद्रZ वातावरण की आवष्यकता होती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस तरह के दीघZकालीन उपायों से एक बहुत बड़े ग्रामीण समुदाय को फायदा पहुंच सकता है। ‘ाुरु के दो वशोZं तक तो `इंडियन कौंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च´ संस्थान ने ही मषरूम के बीज लालमुनी को उपलब्ध करवाए। लेकिन अब लालमुनी खुद 50 रुपये से 60 रुपये प्रति किलो की दर से बीज बाजार से खरीद लेती हैं। एक किलोग्राम बीज से करीब 10-14 किलो मषरूम का उत्पादन हो जाता है। `इंडियन कौंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च´ संस्थान के कृिश वैज्ञानिक एण्आरण् खान के बताते हैं कि `सिर्दयों में उगाई जाने वाली मषरूम की प्रजाति की कीमत आमतौर पर 50-60 रुपये प्रति किलो जबकि गर्मियों के मौसम में पैदा की जाने वाली किस्म की कीमत 80-120 रुपये प्रति किलो रहती है।´ आज लालमुनी देवी की मषरूम की प्रत्येक उपज करीब 20 हजार रुपये से 25 हजार रुपये तक पहुंच जाती है। मषरूम को तैयार होने में करीब तीन महीने का समय लग जाता है और किसी भी मौसम में इसकी खेती की जा सकती है।
नमी एवं उपयुक्त तापमान की अपेक्षित उपलब्धता से मैदानी भागों में भी मषरूम की खेती की जा सकती है। मषरूम को एक इन्डोर फसल के तौर पर जाना जाता है। इसके विकास के लिए 14 से 18 डिग्री सेिल्सयस तक तापमान और 85 प्रतिषत नमी की आवष्यकता होती है। मषरूम को गेहूं एवं धान के चारे, गेहूूं की भूसी, यूरिया, जिप्सम और चिकन मैन्योर को मिलाकर तैयार किए गए कम्पोस्ट पर उगाया जाता है। कीटों से बचाव के लिए डंसंजीपवद एवं ब्लचमतउमजीतपद जैसे रसायनों का छिड़काव किया जा सकता है। यही नहीं मषरूम उगाने की ट्रनिंग के लिए `राश्ट्रीय मषरूम अनुसंधान केन्द्र´ सोलन, हिमाचल प्रदेष में सम्पर्क किया जा सकता है। इसके अलावा राज्यों के कृिश- विष्वविद्यालयों से भी मषरूम उत्पादन के बारे में जानकारी हासिल की जा सकती है। नाबार्ड, नेषनल हार्टीकल्चर बोर्ड और बैंकिंग संस्थान भी मषरूम यूनिट्स एवं कम्पोस्ट मेकिंग यूनिट्स की स्थापना के लिए ऋण भी मुहैया करवाते हैं। मषरूम पौिश्टकता की दृिश्ट से भी महत्वपूर्ण है। इसमें प्रोटीन, फाईबर्स एवं फोलिक एसिड के तत्व समाहित होते हैं। इस तरह के तत्व आमतौर पर अनाज एवं सिब्जयों में कम ही पाए जाते हैं। आज मषरूम अपने इन्हीं गुणों के चलते प्रसििद्ध पाता जा रहा है, जिसके चलते इसका बाजार तेजी से बढ़ रहा है। व्हाइट-बटन मषरूम को फ्रेष अथवा डिब्बाबंद पैकिंग में आचार, कैंडी, बिस्कुट, मुरब्बा अथवा सूप पाउडर बनाकर भी आसानी से बेचा जा सकता है। ‘ाहरी बाजारों में इनकी खासी मांग है। इसके अलावा अब तो फर्मास्युटीकल कंपनियों में मषरूम की मांग की जाने लगी है। मषरूम की करीब दो हजार खाद्य प्रजातियों में से 280 किस्मों का भारत में उत्पादन किया जाता है। भारत मेें पैदा की जाने वाली सबसे महत्वपूर्ण मषरूम की किस्म गुच्छी को माना जाता है। घरेलू उपभोग की बजाय इसका एक बड़ा हिस्सा पाष्चात्य देषों को निर्यात कर दिया जाता है। यूएसए और स्विट्जरलैंड भारत से मषरूम का आयात करने वाले दो मुख्य देष हैं।
भारत में मषरूम उत्पादन का चलन कोई नई बात नहीं है। 1950 के दषक में हिमाचल प्रदेष सरकार ने राज्य के पहले `सहायक प्लांट पैथोलॉजिस्ट एवं माइकोलॉजिस्ट के तौर पर एसण्एसण् जैन को नियुक्त किया। हिमाचल प्रदेष के अंदरूनी हिस्से में फल उत्पादकों एवं किसानों को फसलों में लगने वाली बीमारियों के बारे में जानकारी देने का सफर ‘ाुरु किया तो उन्होंने पाया की राज्य के किसानों की हालत बहुत जर्जर थी और वे गरीबी में गुजर बसर कर रहे थे। उन्होंने किसानों की मदद करने का निष्चय किया। उन्होंने गौर किया तो पाया कि वहां फलों के वृक्षों की सड़ी हुई टहनियों, गेहूं के अनुपयोगी अंष और पषुओं के अपषिश्ट से मषरूम के उत्पादन की भरपूर संभावनाएं थी। इसी ने उन्हें खाद्य मषरूम के उत्पादन हेतु पे्ररित किया। उन्होंने सोलन में रहकर रिसर्च ‘ाुरु कर दी और जब वे सफल हो गए तो अपषिश्टों से मषरूम उत्पादन की विधि का राज्य में प्रसार किया। परिणामत: लोग मषरूम उत्पादन के लिए प्रोत्साहित होने लगे। इसी का ही परिणाम कहा जा सकता है कि आज `सोलन´ को भारत की `मषरूम सिटी´ के नाम से जाना जाता है।
मषरूम की बढ़ती हुई मांग और इसके उत्पादन में सीमांत किसानों की बढ़ती रुचि को देखते हुए एसोचैम के एग्रीकल्चर डिवीजन ने संभावना व्यक्त की है कि आगामी 5 वशोZं में देष में मषरूम का उत्पादन 10 गुना बढ़कर 5 लाख टन सालाना हो जाएगा और 2010 तक निर्यात 139 करोड़ से बढ़कर 170 करोड़ तक पहुंच जाएगा। फिलहाल तमिलनाडु, हरियाणा, उत्तर प्रदेष, उत्तरांचल, पंजाब, हिमाचल प्रदेष और जम्मू को मषरूम उत्पादन की दृिश्ट से अग्रणी माना जाता है।
ऐसा नहीं है कि अन्य राज्यों में मषरूम की खेती संभव नहीं है। लेकिन अभी भी व्यापक स्तर पर लोगों को इसके उत्पादन एवं प्रयोग के बारे में जानकारी न होने से इसकी पहुंच सीमित बनी हुई है। महाराश्ट्र जैसे राज्य जहां किसान आत्महत्या को मजबूर हैं, वहां मषरूम की खेती वरदान साबित हो सकती है। बषतेZ यह सुनििष्चत किया जाना आवष्यक है कि मषरूम की बिक्री के लिए बाजार कहां उपलब्ध हो सकेगा। इससे एक ओर तो छोटे किसानों एवं भूमिहीनों की दषा में सुधार का मार्ग प्रषस्त हो सकेगा, बल्कि प्रगतिषील किसानों को अपने कार्य के विस्तार एवं आगे बढ़ने का एक नया अवसर भी मिल सकेगा।
पटना की जिन 25 महिलाओं को `इंडियन कौंसिल ऑफ एग्रीकल्चर रिसर्च´ संस्थान द्वारा मषरूम की खेती की ट्रेनिंग देने हेतु चुना गया था( उनमें से करीब आधी महिलाओं ने संस्थान द्वारा बीज दिया जाना बंद करते ही इस काम से पल्ला झाड़ लिया। लेकिन आज जब लालमुनी सर्वत्र चर्चा का विशय बन चुकी हैं तो गांव की अन्य महिलाएं एक बार फिर से मषरूम की खेती को अपना कर लालमुनी देवी जैसा ही नाम कमाना चाहती हैं। कुछ समय पूर्व बिल गेट्स द्वारा संचालित `बिल एण्ड मिलिण्डा गेट्स फांउडेषन´ की एक टीम ने आजाद नगर का दौरा किया। फांउडेषन ने इस क्षेत्र में गरीब किसानों को ध्यान में रखते हुए इसी तरह की एग्रीकल्चर परियोजनाएं ‘ाुरु करने की इच्छा ज़ाहिर की है।
भले ही मषरूम के उत्पादन से देष के विकास एवं गरीबी उन्मूलन की अपार संभावनाएं हों, लेकिन जिस लालमुनी देवी ने अपनी प्रतिबद्धता के बूते अपने ही जैसे लाखों लोगों को आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है, उसे सरकार ने ही उपेक्षित सा कर दिया है। भले ही लालमुनी देवी को उनके प्रयास के लिए अंतर्राश्ट्रीय स्तर पर सराहा गया हो, लेकिन भारतीय अथॉर्टिज का ध्यान वे अभी तक नहीं आकिशZत कर पाई हैं। इस वशZ अपै्रल में मुख्यमंत्री नीतीष कुमार की अध्यक्षता में देष के बड़े उद्योगपतियों वाली बीण्डीण्आईण्सीण् (बिहार डेवल्पमेंट एण्ड इन्वेस्टमेंट कौंसिल) की बैठक हुई, जिसमें राज्य में आर्थिक समृिद्ध लाने के उद्देष्य से कृिश एवं कृिश आधारित उद्योगों को चििन्हत किया गया। लेकिन लालमुनी देवी को उसके अनुभवों को साझा करने का मौका नहीं मिल सका। हाल ही मेंं एक बार फिर कृिश के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल करने वाले 25 उद्यमियों को राज्य सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया। लेकिन इस सूची से भी मषरूम-लेडी लालमुनी देवी का नाम नदारद था। इस तरह की उपेक्षा से लालमुनी देवी थोड़ी उदास तो हैं, लेकिन उन्हें गर्व है कि उन्होंने लोेगों को एक नई राह दिखाई है।

5 comments:

संजीव कुमार सिन्‍हा said...

आपने विचारशील विषय उठाया है। मषरूम-लेडी लालमुनी देवी का प्रयास स्तुत्य हैं। ऐसे लोग पुरस्कार के लिए काम नहीं करते। लेकिन समाज का दायित्व है कि ऐसे लोगों का सम्मान जरुर करें।

आशीष कुमार 'अंशु' said...

Aap Accha kaam kar rahe hai. keep it up.

Ashish Maharishi said...

gooodddddddddddd

ऋतेश पाठक said...

इस कहानी का दूसरा पहलू यह भी है कि लालमुनी देवी को पटना का बाज़ार मिल गया. वर्ना 80 रुपये किलो मशरूम खरीदने वाले लोग कहां मिलते है. लग्भग छः सात साल पहले नेहरु युवा केन्द्र ने पूरे बिहार में मशरूम की खेती का अभियान शुरु किया और ग्रामीणों को प्रशिक्षित किया था. मगर बाजार के अभाव में यह खेती व्यवसाय का रूप नहीं ले सकी. लालमुनि की सफलता के पीछे उसकी मिहनत जरूर बडा कारक है मगर 'बाज़ार नाम केवलम्' की हालत न रहे तो और छोटे स्तर पर प्रयास करने वालों को उचित समर्थन मिले तो शायद पूरे देश में लालमुनियों की फौज़ खडी हो जाएगी. बहरहाल, इस बेतरीन खबर की खोज के लिए बधाई.

अनुनाद सिंह said...

स्तुत्य एवं अनुकरणीय कार्य!!