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Tuesday, October 9, 2007

जैविक खाद से बदली तकदीर

उमाशंकर मिश्र
इन्डिया फ़ांउडेशन फ़ार रूरल डेव्लपमेन्ट स्टडीज
नई दिल्ली
मध्य प्रदेश में बैतूल जिला मुख्यालय से करीब 70 किमीटर की दूरी पर पहाड़ों से घिरा हुआ ग्राम है, चिल्हाटी। दूरदराज के इस गांव में करीब डेढ़ सौ किसानों के घर हैं। नत्थू हजारे और जीवन लाल हिंगवे भी इसी गांव में रहने वाले कृषक हैं। जिन्हें करीब दो दो लाख रुपए का कर्ज विरासत में मिला था। उन्हें सूझ नहीं रहा था कि कैसे कर्ज के इस अभिशाप से मुक्ति पाई जाए। आमदनी कम होने के कारण परिवार का भरण पोषण भी कठिन हो गया था। लेकिन सरकारी अनुदान पर लगने वाले गोबर गैस संयंत्र और जैविक खाद से न केवल इन दोनों किसानो की तकदीर बदल गई बल्कि पूरा गांव इस तरह के प्रयोग से आत्मनिर्भर बनने की ओर अग्रसर है। जीवन लाल हिंगवे एक एकड़ जमीन के काश्तकार हैं। उनके घर पर दो घन मीटर और चार घन मीटर का गोबर गैस संयंत्र बना हुआ है। जिससे पैदा होने वाली गैस का उपयोग वे घर में खाना बनाने के लिए तो करते हैं। इसके अलावा उन्होंने 200 रुपए प्रति माह के हिसाब से इस संयंत्र से दो लोगों को कनेक्शन भी दिया है। इसी तरह से केंचुआ खाद से वे साल भर में डेढ़ लाख रुपए तक कमा लेेते हैं और करीब 30 हजार रुपए की कमाई केंचुए बेचने से हो जाती है। चिल्हारी गांव मे कुल 41 नाडेप टांके बने हैं और यहां सालाना दो सौ टन गोबर खाद एवं 100 टन केंचुआ खाद का उत्पादन हो रहा है। इस तरह के प्रयोग से गांव के किसानों को खेती के अलावा आय का एक वैकल्पिक जरिया मिल गया है। जिससे ग्रामीणों की आय में वृिद्ध होने के साथ साथ खेतों में जैविक खाद के प्रयोग से फसलों की उपज भी भरपूर हो रही है। इसी का परिणाम है कि नत्थू हजारे और जीवन लाल हिंगवे जैसे किसान आज बेहतर जीवन जी रहे हैं। हिंगवे ने तो खाद से होने वाली आय की बदौलत एक आटा चक्की भी लगा ली है। इसके अलावा गाय पालन के साथ सिंचाई के लिए एक ट्यूबवैल भी लगवा लिया है। इस तरह जैविक खाद के उत्पादन से किसानों किसानोें के जीवनस्तर को सम्मानजनक स्थिती में पहुंचा दिया है। गांव की पूर्व सरपंच दुर्गाबाई ने भी एक गोबर गैस और चार नाडेप टांंके बनवाए हैं। इनमें से दो नाडेप टांके तो सरकारी अनुदान से बने हैं। बकौल दुर्गाबाई पहले हजारों रुपए की लकड़ियां ईंधन के रूप में जल जाती थी और खेतों में रसायनिक खाद डालने के लिए भी धन का काफी खर्च होता था। लेकिन अब इन मदों पर होने वाले खर्च की बचत का उपयोग ग्रामीण अन्य कामों मे करने लगे हैं। जैविक खाद के प्रयोग से फसल उत्पादन में वृिद्ध के अलावा कीटों के प्रकोप का खतरा भी कम हो गया है। कृमि अर्थात् केंचुओं को मृदा में डालना या उनमें कृमि खाद बनाना अत्यंत प्राचीन प्रक्रिया है। इसे अन्य प्रचलित प्रक्रियाओं में सर्वोत्तम भी माना गया है। इस तरह से देखा जाए तो जैविक खाद के प्रयोग से न केवल रसायनिक उर्वरकों पर होने वाले खर्च से बचा जा सकता है। बल्कि यह पर्यावरण हितकारी भी है। केंचुओं की खाद बनाने वाली प्रजाती जमीन में रहने वाली समान्य प्रजाति से भिन्न होती है। ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि इसके लिए अच्छी प्रकार के केंचुएं प्रयोग किए जाएं। इसके लिए तीन प्रकार की प्रजातियां प्रचलित हैं। अफ्रीकन नाइट क्राउजर, टाईगर वर्म और इंडियन ब्लू वर्म इसमें प्रमुख है।

1 comment:

उन्मुक्त said...

रसायनिक उर्वरकों से कहीं बेहतर है जैविक खाद। पर जरूरी है लोगों में जागरुकता पैदा करना कि वे प्राकृतिक खाद से उत्पादित अन्न वा फल को खायें।