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Thursday, October 11, 2007

रेत में दूब के अंकुर



थाईलैंड के साथ हुए एक करार के तहत फाउंडेशन ने हाल ही में केंचुओं की पहली खेप का निर्यात भी किया है। इस तरह दक्षिण एशिया में दस्तक दे चुका यह संस्थान शीघ्र ही यूरोपीय देशों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने जा रहा है। फाउंडेशन की सबसे बड़ी उपलब्धि जैविक कृषि, वर्मीकम्पोस्ट और वर्मीकल्चर भले ही रही हो लेकिन संसाधनों के प्रबंधन, स्वास्थ्य, शिक्षा समेत कई क्षेत्रों में भी फाउंडेशन ने महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं।

-उमाशंकर मिश्र


जैविक खेती भारत में नई नहीं है। वेदों में भी इसका जिक्र आता है। 500 ईसा पूर्व लिखी अपनी पुस्तक में वराहमिहिर ने दर्शाया है कि किस फसल में किस खाद का प्रयोग करना चाहिए। मोहनजोदाड़ों के धान के भंडार बताते हैं कि भारत में उन्नत किस्म की खेती होती थी। आज राजस्थान के शेखावटी अंचल में जैविक खेती एवं वर्मीकल्चर के व्यापक प्रयोगों से एक बार फिर बदलने लगी है फिजां और अब बंजर भूमि में भी अंकुर फूटने लगे हैं।नवलगढ़ तहसील, जिला झुंझनू( राजस्थान के किसान मुरलीधर की जैविक पद्धति से किसानी आज न केवल उनकी समृिद्ध का पर्याय बन गई है बल्कि अन्य किसानों के लिए भी वे आदर्श बन गए हैं। करीब 7 वर्ष पूर्व इस तरह की स्थिति उनके लिए नहीं थी। लगातार रसायनिक खाद के प्रयोग से उनके खेतों की रेतीली मिट्टी पथरा कर अपनी उर्वरा शक्ति खो चुकी थी। ऐसे में उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि क्या किया जाए जिससे एक भरे-पूरे संयुक्त परिवार के भरण-पोषण का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। इसी दौरान वे शेखावटी अंचल में जैविक खेती के प्रोत्साहनार्थ कार्य करने वाली संस्था मोरारका रूरल रिसर्च फांउडेशन के संपर्क में आए, जिससे उन्हें अपने खेतों की माटी को पुन: कृषि योग्य बनाने के लिए जैविक खेती अपनाये जाने को कहा गया। पहले तो मुरलीधर को विश्वास नहीं हो रहा था कि जैविक खेती और वर्मीकम्पोस्ट खाद इतना फायदेमंद हो सकता है। लेकिन कोई चारा न देख उन्होंने फाउंडेशन के लोगों की बात मान ली और जैविक खेती प्रारंभ कर दी। सर्वप्रथम कठोर हो चुकी खेतों की मिट्टी को उजाउू बनाना था। इसके लिए केंचुआ खाद का आवश्यकतानुसार उपयोग किया गया, जिससे खेतों की मिट्टी में पोषक तत्व एवं नमी पुन: स्थापित हो गए और मिट्टी पहले की अपेक्षा भुरभुरी हो गई। इस तरह की मिट्टी में किस तरह की फसलें ली जा सकती हैं, यह भी फांउडेशन की ओर मुरलीधर को समझाया गया। एक जागरूक किसान की तरह मुरलीधर की रूचि भी इस कार्य में बनी हुई थी और उन्होंने सिब्जयों की खेती शुरु कर दी। आज वे अपने खेतों में गोभी, मूली, मटर, प्याज, बैंगन और पत्ता गोभी बाजरा, मिर्च, ग्वार, पालक, इत्यादि की भरपूर फसल लेने लगे हैं। जबकि वर्ष 2000 से पूर्व पानी की कमी के चलते उन्हें खेतों को परती छोड़ना पड़ता था। लेकिन आज जैविक खेती और केंचुआ खाद के प्रयोग से पानी की आवश्यकता भी पहले की अपेक्षा कम हो गई है। आज मुरलीधर ने रसायनिक खाद और केमीकल्स के प्रयोग को पूरी तरह से नकार दिया है। वे बताते हैं कि उत्पादन भी पहले की अपेक्षा डेढ़ गुना बढ़ गया है। यही नहीं वर्ष 2000 से पूर्व उनकी सालाना आय पौने दो लाख रुपये थी, जो आज बढ़कर 3 लाख रुपये तक पहंुंच गई है। यही नहीं वर्ष 2003में जैविक खेती का मानक प्रमाण पत्र मिल जाने से कार्य और भी आसान हो गया। आज मुरलीधर ने पांच किसानों का एक समूह बनाकर खेती करना आरंभ कर दिया है और उनकी सिब्जयां सतलुज नामक मार्कीटिंग एजेंसी की मार्फत दिल्ली तथा जयपुर तक जाने लगी हैं। यही नहीं वे अपने समूह के किसानों के साथ मिलकर संगठित तौर पर अपने उत्पादों की मार्कीटिंग करने के लिए विचार कर रहे हैं।मोरारका फ़ांउडेशन के प्रतिनिधियों की प्रेरणा से उन्होंने अपने फार्म पर ही अब केंचुआ खाद खुद ही तैयार करनी शुरु कर दी है। फांउडेशन की ओर से इस कार्य के लिए ट्रेनिंग के साथ साथ आरंभिक चरण में केंचुए भी दिये गये, जिन्हें कुशल मुरलीधर ने कई गुना कर लिया है। वे बताते हैं कि विशेषज्ञ कहते थे कि शुष्क माटी में वर्मीकलर संभव नहीं है। क्योंकि नमी न होने से केंचुए मर जाएंगे और ऐसे में प्रयोग असफल होकर रह जाएग। लेकिन मोरारका फांउडेशन के प्रतिनिधियों ने अपने तकनीकी कौशल के द्वारा इस बात को गलता साबित कर दिखाया है। गोबर के ढेर मेें व्यवस्थित तरीके से केंचुओं को डालकर गीले टाट से ढक दिया जाता है, जहां प्रजनन द्वारा उनकी संख्या में निरंतर वृिद्ध होती रहती है। इस तरह से उनका प्रयोग जैविक खाद के निर्माण में किया जाता है। मुरलीधर गोबर की आवश्यकता भी उसके द्वारा पाले गए जानवरों से ही पूरी हो जाती है। इसके लिए किसी और पर निर्भर रहने की आवश्यकता मुरलीधर को नहीं है। वे बताते हैं कि खाद अब खरीदनी नहीं पड़ती और बीज के अतिरिक्त कोई खर्च भी नहीं आता। इसके अलावा फसलों पर लगने वाले कीड़ों से बचाव के लिए जैविक स्प्रेे के निर्माण की तकनीक भी उन्होंने सीख ली है। इसके लिए आवश्यक गौमूत्र एवं आक के पत्तों जैसी जरूरी आगतें आसानी से उपलब्ध हो जाती हैंं। आज मुरलीधर के गांव चेलासी में करीब 20 से 25 घर ऐसे हैं, जिन्होंने उनकी तरह ही खेती के प्रयोगों को अपनाना शुरु कर दिया है। वयोवृद्ध मदन सिंह भी ऐसे ही किसानों में से एक हैं। 48 बीघे के काश्तकार मदन सिंह ने बाजरा, ग्वार, मोठ, मूंग का उत्पादन पूरी तरह से जैविक खेती के द्वारा शुरु कर दिया है। इसके लिए उनका सर्टीफीकेशन भी हो चुका है। सर्टीफीकेशन जैसी तमाम तकनीकी और उनकी उपयोगिता संबंधी जानकारियां किसानों तक पहुंचाने का काम भी मोरारका फांउडेशन के ही प्रतिनिधी करते हैं।वर्षों तक कार्य करने के बाद मोरारका फाउंडेशन की आर्गेनिक फार्मिंग विंग ने अपने अनुभवों से अपनी कार्य-पद्धति को भी नये आयाम दिये हैं। किसानों को उनके कौशल के आधार पर विभक्त किया है, जिसमें उन्हें स्टार रेटिंग दी जाती है। ऐसा किसान जो सिर्फ फाउंडेशन के आर्गेनिक फार्मिंग कार्यक्रम से परिचित है या फिर इसमें शामिल होने का इच्छुक है, उसे सिंगल स्टार रेटिंग दी जाती है। जबकि किसी जागरूकता कार्यक्रम में हिस्सा ले चुके और पंजीकरण के इच्छुक किसानों को दो स्टार श्रेणी में रखा जाता है। आर्गेनिक फार्मिंग के विस्तार कार्यक्रम को बखूबी समझने वाले पंजीकृत किसानों को तीन स्टार रेटिंग की श्रेणी में रखा जाता है। इस श्रेणी के अंर्तगत कार्य करने वाले किसान अपेक्षाकृत तौर पर जैविक खेती के बारे में बेहतर समझ हासिल कर चुके होते हैं। इसी तरह से किसानों को उनकी दक्षता के आधार पर सात स्तरों पर रेटिंग दी गई है।मुरलीधर की भांति ही शेखावटी के जिलों सीकर के 43 और झुंझनू के 67 गांवोंं में सर्टीफीकेशन एजेन्सी से रजिस्टर्ड करीब 10,214 किसान हैं, जिन्होंने जैविक खेती को अपनाया है। थाईलैंड के साथ हुए एक करार के तहत फाउंडेशन ने हाल ही में केंचुओं की पहली खेप का निर्यात भी किया है। इस तरह दक्षिण एशिया में दस्तक दे चुका यह संस्थान शीघ्र ही यूरोपीय देशों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने जा रहा है। मोरारका फाउंडेशन की सबसे बड़ी उपलब्धि जैविक कृषि, वर्मीकम्पोस्ट और वर्मीकलर भले ही रही हो लेकिन संसाधनों के प्रबंधन, स्वास्थ्य, शिक्षा समेत कई क्षेत्रों में भी फाउंडेशन ने महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं।

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