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Wednesday, August 12, 2009

मानवाधिकार और ख़बर का कमोडिफिकेशन

उमाशंकर मिश्र/दिल्ली
हाल ही में एक प्रतिष्ठत हिन्दी दैनिक में जालंधर से एक ख़बर आई, जिसमें पुलिस द्वारा मीडिया वालों से आरोपियों के साथ फोटो खिंचवा कर वाहवाही लूटने की बात कही गई थी। आखिरकार पुलिस को अपनी इस हरकत के लिए लताड़ खानी पड़ गई। हुआ यों कि कुछेक बरी आरोपियों ने हाईकोर्ट में राज्य पुलिस के खिलाफ याचिका दायर कर दी कि जब उन्हें पकड़ा गया तो उनकी तस्वीरें जमीन में बैठाकर खिंचवाई गई, जिससे उनके मान सम्मान को ठेस पहुंची है। पीड़ितों ने इस बात की शिकायत मानवधिकार आयोग में भी कर दी। आयोग ने इस पर संज्ञान लिया और अंतत: डीजीपी पी.एस. गिल ने प्रदेश के सभी एएसपी को आदेश जारी कर दिये कि आरोपी के साथ फोटो खिंचवाने वाले अधिकारियों की खै़र नहीं होगी।
बहरहाल इन सब में जो मजेदार बात छन कर आ रही है, वो यह कि मानवाधिकार आयोग के सख्त रवैये से दागी पुलिस कर्मचारियों और मीडिया से जुड़े कुछ दलाल टाईप के लोगों की मनमानी पर लगाम लग जायेगी। कई बार पुलिस प्रभावाशाली लोगों को गिरफ्तार तो कर लेती है, लेकिन ऐसे लोगों को एक्सपोज कर वाहवाही बटोरने काजोिख़म उठाने से वे डरते हैं। जबकि छोटे-मोटे केस में पकड़े गए व्यक्ति को मीडिया द्वारा प्रचारित किए जाने से सामाजिक तिरस्कार का डर दिखाकर वसूली कर ली जाती है। ख़बर में यह साफ तौर पर बताया गया है कि-`राज्य स्तर पर की गई समीक्षा में यह बात सामने आई है कि मीडिया से जुड़े कुछ दलाल टाईप लोगों की दागी पुलिस कर्मचारियों से सैटिंग रहती है। इसकी आड़ में पुलिस कर्मचारी जेबें भरने से गुरेज नहीं करते।
एक व्यक्ति जो किसी मामले में महज एक आरोपी है और जिसका दोष अभी न्यायालय में सिद्ध नहीं हुआ हो, उसे पुलिस (जो की एक स्टेट मशीनरी है) द्वारा झूठी प्रशंसा बटोरने और वसूली के फेर में मीडिया के माध्यम से समाज के सामने एक्सपोज कर देना क्या सही हैर्षोर्षो यदि कोर्ट में वह व्यक्ति निर्दोष साबित हो भी जाये तो उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा एवं आत्मसम्मान क्या धूल-धुसरित होने से बचा रह पायेगार्षोर्षो यह तो मामले का एकमात्र पहलू है, जो पुलिस की भूमिका से जुड़ा है। दूसरी भूमिका इस तरह के मामलों में मीडिया की होती है। क्या कवरेज करने वाले पत्रकार एवं फोटो पत्रकार को यह नहीं मालूम होना चाहिए कि जिस ख़बर अथवा दृश्य के लिए कच्ची सामग्री वह एकत्रित कर रहा है वह आचार संहिता के दायरे में है अथवा नहीं। कहीं इस ख़बर अथवा दृश्य के प्रकाशित होने से संबंधित व्यक्ति के अधिकार प्रभावित तो नहीं होंगे! आधुनिक मीडिया युग में ख़बर के कमोडिटी बन जाने का यह एक ज्वलंत उदाहरण है, जिसमें मीडियाकर्मी यह नहीं सोचना चाहता कि यह ख़बर है भी या नहीं, उसे तो बस कुछ न कुछ चाहिए जिससे कि ख़बर के नाम पर संपादक को कुछ दिया सके और साथ में उसके अपने स्वार्थ भी उस ख़बर से सध जायें।
बहरहाल ख़बर अथवा चित्र संपादकीय कार्यालय में देने के बाद रिपोर्टर की जिम्मेदारी समाप्त होती है और संपादक की जिम्मेदारी शुरु हो जाती है। ख़बर, फोटो के औचित्य, प्रभाव, कुप्रभाव और निहितार्थों का आकलन करते हुए प्रकाशन संबंधी निर्णय समचार संपादक अथवा फोटो संपादक को लेना होता है। दोष सिद्ध हुए बिना गिरफ्तार आरोपियों के साथ चित्र प्रकाशित होने से पुलिस वालों ने भले ही झूठी वाहवाही बटोर ली हो, लेकिन मीडिया की ऐसे में भद्र पिट जाती है, जिसका आभास न तो संपादक को और न ही रिपोर्टर को होता है। इस पूरी कवायद के बीच बेचारा निर्दोष आरोपी सामाजिक तिरस्कार का पात्र बन जाता है। उल्लेखनीय है कि उस व्यक्ति को इस तरह के तिरस्कार का सामना जनसरोकारों एवं लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली पत्रकारिता की रिपोर्टिंग के कारण झेलना पड़ता है। इस तरह से व्यक्ति के आत्मसम्मान को चोट पहुंचाने और उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा को उपहास का पात्र बनाकर क्या मीडिया अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहा हैर्षोर्षो दिल्ली के एक स्कूल की अध्यापिका उमा खुराना का स्टिंग कर एक न्यूज चैनल ने इसी तरह की परिस्थिति उत्पन्न कर दी थी। बाद में आधारविहीन रिपोर्टिंग के लिए न्यायालय ने चैनल को कुछ समय तक प्रतिबंधित कर दिया है। आज फिर वह चैनल न्यूज मािर्कट में जनता का रहनुमा बनकर असामाजिक सांड की तरह विचरण कर रहा है। लेकिन उसके कृत्य ने उमा खुराना नाम की अध्यापिका को कहीं का नहीं छोड़ा। भरे बाजार में उमा खुराना को लोगों ने बर्बरता से पीटा ही नहीं बल्कि उसके कपड़े तार तार कर दिये। क्या यह एक मानव जो महिला भी है, उसके अधिकारों का हनन नहीं हैर्षोर्षो मीडिया के ऐसे कृत्यों से आिख़र उससे क्या आशा की जा सकती है। क्या कुछ समय के लिए चैनल पर प्रतिबंध लगा देने से उस अध्यापिका की प्रतिष्ठा एवं आत्मसम्मान वापस लौट पायेगार्षोर्षो लेकिन इस पूरे मामले पर चैनल ने तात्कालिक तौर पर खूब टीआरपी बटोरी।
उपयुक्Zत मामले में जहां तक पुलिस की बात है, उसे तो राज्य की मशीनरी के तौर पर देखा जाता है। मानवाधिकार की डिक्शनरी में राज्य को कभी कल्याणकारी माना ही नहीं गया, बल्कि उसे तो मानवाधिकारों के सबसे बड़े शोषक के तौर पर देखा जाता है। क्योंकि पुलिस एवं प्रशासन उसी मशीनरी का हिस्सा हैं, इसलिए मानवाधिकारवादियों के नज़रिये से ठीक यही बात उन पर भी लागू होती है। जबकि राज्य को कल्याणकारी मान भर लेने से मानवाधिकार की संकल्पना ख़तरे में पड़ सकती है। बहरहाल यहां गौर करने वाली बात यह है कि जब मीडिया को पुलिस की झूठी वाहवाही को बटोरने की कवायद का पर्दाफाश करते हुए उन कथित आरोपियों के मानवाधिकार और उनके आत्मसम्मान की रक्षा करने के लिए ख़बर प्रसारित करनी चाहिए थी, वहां मीडिया पुलिस वालों की दलाली में लग गया और पुलिसकर्मियों को आरोपियों से वसूली करने की बात को दबा लिया गया। इस तरह से देखा जाये तो मीडिया और स्टेट मिलकर उन आरोपियों के मानवाधिकारों का हनन करते हैं। जिस पर अंतत: मानवाधिकार आयोग को हस्तक्षेप करना पड़ जाता है। कथित तौर पर वॉचडाग की भूमिका निभाने वाले मीडिया से आखिर हम किस तरह की आशा कर सकते हैं।

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