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Saturday, September 13, 2008

छत्तीसगढ़ में जट्रोफा की फसल से लोग संकट में


छत्तीसगढ़ के ग्रामीण बकरंडा का उपयोग घर की सुरक्षा हेतु उसके चारो तरफ बाड़ लगाने के लिए करते रहे हैं। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस बकरंडा का प्रयोग छत्तीसगढ़ के लोग घर की सुरक्षा के लिए करते थे, वही आज जट्रोफा बनकर उनके घर के उजड़ने का कारण बन रहा है, क्योंकि जट्रोफा प्रमोशन के नाम पर लोगों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जा रहा है।

उमाशंकर मिश्र
'''जमीन, जिसको हम वर्षों से जोतते बोते रहे हैं और जो हमारी गुजर-बसर का सहारा रही है, आज उसे छोड़कर आखिर कहां हम जाएंगे'' बिलासपुर के कोटा ब्लॉक के गांव दैहारीपारा की रहने वाली आदिवासी महिला संतोषी सउता के इस प्रश्न का जवाब जब जिलाधिकारी और मुख्यमंत्री के पास नहीं मिला तो वह अपनी गुहार लेकर राजधानी दिल्ली आ पहुंची, कि जट्रोफा उत्पादन के नाम पर किस तरह से उनकी जमीनों को जबरन छीना जा रहा है। संतोषी के अलावा बिलासपुर के कोटा ब्लॉक के पंडरीपानी ग्राम निवासी धर्मसिंह की दास्तान भी इसी तरह की है। इन दोनों का कहना है कि वन अधिकारी जमीन छोड़ देने का दबाव डाल रहे हैं। वे बताते हैं कि जट्रोफा के उत्पादन के लिए जमीन खाली करने के लिए हमें नोटिस भी भेजे गए थे और यह भी कहा गया कि जमीन न खाली करने पर जेल भेज दिया जाएगा। संतोषी के मुताबिक कुछ और लोगों को भी ऐसे नोटिस भेजे गए हैं। दैहारीपारा बिलासपुर से करीब 70 किलोमीटर की दूरी पर बेलगहना की पहाड़ियों तथा जंगल के बीच में बसा छोटा सा गांव है। यहां अधिकतर लोग सउता जाति के हैं, जिनके जीवन यापन का मुख्य आधार वन्य-उत्पाद तथा कृषि है। पड़ोस के गांव मिट्ठुनवा के महित्रु सउता बताते हैं कि दैहारीपारा, ग्राम पंचायत 'उपका' का आश्रित ग्राम है और यहां 25 घर हैं। दैहारीपारा के झूलसिंह सउता बताते हैं कि ग्राम वन समिति के लोगों द्वारा हमारी फसल को चरवा दिया गया। वे कहते हैं कि जिन खेतों को चरवाया गया था, उन पर धान, ज्वार, अरहर, उड़द और कांदा प्याज की खेती की गई थी।
जब झूलसिंह से पूछा गया कि अब परिवार का गुजारा कैसे होगा तो वे असमंजस में पड़ जाते हैं, काफी सोचकर कहते हैं कि मजदूरी करेंगे और क्या कर सकते हैं! उल्लेखनीय है कि जट्रोफा को स्थानीय भाषा में 'बकरंडा' कहा जाता है, जिसमें औषधीय गुण विद्यमान होने की बात कही जाती है। ग्रामीण इस बकरंडा का उपयोग घर की सुरक्षा हेतु उसके चारो तरफ बाड़ लगाने के लिए करते रहे हैं। लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि जिस बकरंडा का प्रयोग छत्तीसगढ़ के लोग घर की सुरक्षा के लिए करते थे, वही आज जट्रोफा बनकर उनके घर के उजड़ने का कारण बन रहा है।
कोरबा जिले के पसान ब्लॉक में तैनात वन अधिकारी आरएस मरकाम कहते हैं कि वनभूमि पर अनाधिकृत रूप से काबिज लोगों को नोटिस भेजा जाना विभाग की कार्य-प्रक्रिया का हिस्सा है। इन सबके बीच सवाल उठता है कि क्या उन लोगों के साथ भी अतिक्रमणकारियों की तरह ही व्यवहार किया जाएगा, जो वर्षो से उस जमीन पर रहकर जीवन यापन के संसाधन के तौर पर उपयोग करते रहे हैं। वनभूमि में वर्षों से आदिवासी रहते रहे हैं, हालांकि उनके साथ पट्टे की समस्या रही है, जिसे वनाधिकार अधिनियम 2005 के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया गया है। इस अधिनियम के आ जाने से 13 दिसंबर 2005 के पूर्व तक काबिज आदिवासियों को पट्टा दिये जाने की बात कही जा रही है।
छत्तीसगढ़ को आदिवासियों एवं दलित बहुल जनसंख्या के लिए जाना जाता है। यहां 3113 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति तथा 2232 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोग हैं। बैगा, कोरबा, कमार, पाहाड़ी, भुंजिया, बिरहोर और मरिया प्रमुख जनजातियां हैं। उल्लेखनीय है कि संयुक्त संसदीय समिति ने 24 अक्टूबर 1980 की बजाय 13 दिसंबर 2005 के पूर्व तक वनभूमि में रहने वाले आदिवासियों को पट्टा देने की सिफारिश की थी। प्रदेश सरकारों पर आरोप लगाया जा रहा है कि, 1980 के बाद काबिज लोगों को वे पट्टा नहीं देना चाहती, इसीलिए जट्रोफा प्रमोशन की आड़ में लोगों को उजाड़ा जा रहा है। दूसरी ओर वन विभाग इस आशंका से भी ग्रस्त जान पड़ता है कि यदि भविष्य में जटोफा उत्पादन की मुहिम जोर पकड़ने लगी तो, इसकी देखरेख के लिए बनाई जाने वाली पृथक सोसायटी के अधीन यह सारी वनभूमि चली जाएगी। विभाग अपनी भूमि को गंवाने की आशंका से वनभूमि पर जटोफा के रोपण की इजाजत नहीं देना चाहता। जबकि संतोषी और धर्मसिंह जैसे लोगों को शिकार बनाया जा रहा है।
ग्रामसभा के अंतर्गत सार्वजनिक जमीनें या कमांड लेंड जिस पर समुदाय का अधिकार होता है, आज विवाद का विषय बनती जा रही हैं। जबकि सैकड़ों वर्षों से लोग वहां काबिज रहकर स्थानीय संसाधनों की मदद से जीवन यापन करते रहे हैं। वैसे भी पंचायत एक्ट -- द एक्सटेंशन टू शिडयूल्ड एरिया 1996, के मुताबिक आदिवासियों को यह सुनिश्चित करने का अधिकार होना चाहिए कि गांव की सार्वजनिक भूमि का वे किस प्रकार उपयोग करें। जबकि छत्तीसगढ़ एवं राजस्थान सरकारेंऋ गांव की सार्वजनिक जमीन को वेस्टलैण्ड मानती हैं। इसी आधार पर इस जमीन पर जट्रोफा उत्पादन की वकालत की जा रही है। 'रिसर्च फांउडेशन फॉर साइंस, टेक्नॉलजी एण्ड एन्वायरमेंट' ने राजस्थान, विदर्भ और छत्तीसगढ़ में बायोयूल प्रमोशन के कारण स्थानीय समुदायों एवं पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों के अध्ययन में पाया है, कि जट्रोफा प्रमोशन के कारण 'ग्रामीणों की जमीन लिए जाने, आदिवासी अधिकार-हनन, बायोडाइवर्सिटी को नुक्सान और इन सबके कारण खाद्य उत्पादों के दामों में वृद्धि हो रही है।
फांउडेशन के अनुसंधानकर्ता मनुशंकर बताते हैं कि 'छत्तीसगढ़ में जट्रोफा रोपण के लिए आदिवासियों की फसलों को नष्ट कर दिया गया। आदिवासियों को उनके गांव की सार्वजनिक भूमि के उपयोग के अधिकार से भी बेदखल किया गयाऋ जो पंचायत एक्ट के उल्लंघन का मामला बनता है।' वे बताते हैं कि आदिवासी अब इस खतरे के चलते जट्रोफा का विरोध करने लगे हैं।
विवाद के स्वर छत्तीसगढ़ तक ही सीमित नहीं है, बल्कि राजस्थान और उड़ीसा से भी गूंज सुनाई देने लगी है। राजस्थान में बायोईंधन प्रमोशन के चलते ग्रामीण सार्वजनिक भूमि एवं चरागाहों के नष्ट होने की बात कही जा रही है। उल्लेखनीय है कि अंग्रजों के समय से चले आ रहे कानूनों में इस तरह की भूमि को वेस्टलैण्ड की संज्ञा दी गई है। 7 मई 2007 को 'राजस्थान लैण्ड रिवेन्यु रूल्स 2007' बनाया गया।
इस नियम के अंतर्गत 1000 हेक्टेयर से 5000 हेक्टेयर भूमि को, जिसे राज्य के मुताबिक वेस्टलैण्ड माना जाता हैऋ 20 वर्षों के लिए ग्रामीण समुदाय से लेकर बायोयूल इंडस्ट्री को ट्रांसफर किया जाना सुनिश्चित कर दिया गया। उदयपुर की मावली तहसील के कुंचोली गांव निवासी हरीराम गुर्जर और माला मागरा की जमनीबाई भील को कुछ समय पूर्व उनकी जमीन से बेदखल कर दिया गया। अजब विरोधाभास है कि उसी जमीन को गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों को जट्रोफा उत्पादन के लिए दिया जा रहा है। सामाजिक कार्यकर्ताओं की मानें तो आज दलित और आदिवासी समुदाय राजस्थान टेनेन्सी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव से भी व्यथित हैं, क्योंकि इससे अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की जमीनों को अन्य लोगों को बेचे जाने का रास्ता साफ हो जाएगा। इस घटनाक्रम को जट्रोफा प्रमोशन की मुहिम का हिस्सा बताया जा रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता सवाई सिंह के अनुसार 'राजस्थान के एक वृहद् हिस्से में लोगों के परामर्श के बिना, बड़े पैमाने पर जट्रोफा प्रमोशन का कार्य किया जा रहा है।'
राजस्थान में 194 मिलियन हेक्टेयर सार्वजनिक चरागाह भूमि है, जबकि कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 70 प्रतिशत हिस्सा सार्वजनिक भूमि के अंतर्गत माना जाता है।
जट्रोफा उत्पादन से ग्रामीणों के सार्वजनिक भूमि के उपयोग के वर्षों से चले आ रहे अधिकार को नुक्सान पहुंचेगा। राजस्थान जैसे राज्य में पशुधन लोगों के जीवन यापन का मुख्य साधन माना जाता है। पशुओं के चराने का स्थान छिन जाने से उनका जीवन प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाएगा। जट्रोफा की खेती से बायोडाइर्सिटी में बदलाव की बात मानें तो इससे ग्रामीण एग्रो-सिस्टम को इंडस्ट्री द्वारा बायोयूल उत्पादन के लिए बदल देने से स्थानीय पर्यावरण में परिवर्तन हो सकता है।
जट्रोफा उत्पादन में कंपनियों की धोखाधड़ी का नमूना उड़ीसा में देखने को मिला है। बलांगीर जिले के पटनागढ़ सब-डिवीजन के तीन गांवों घूमर, घुंघुटीपाली और जलपाली के किसानों की भूमि को दिल्ली की 'ताज गैस लिमिटेड'कंपनी द्वारा छीने जाने का आरोप है। बाद में जब मामला तूल पकड़ने लगा तो रिवेन्यु डिविजनल कमिश्नर मधुसूदन पढ़ी की देखरेख में जांच का कार्य शुरु किया गया। स्थिति का जायजा लेने के लिए जब आरडीसी ने इन गांवों का दौरा किया तो पाया कि भूमि के एक बड़े हिस्से को कंपनी द्वारा धोखे से हड़प लिया गया था। धोखाधड़ी भी कुछ इस तरीके से की गई थी कि जमीनों को पुन: किसानों को दिलाना टेड़ी खीर होगा।
जुलाई 2007 में पेरिस में सम्पन्न हुई 'सब्सिडियरी बॉडी ऑन सांइटिफिक, टेक्निकल एडवाईज' की बैठक में भी 'नार्वे, स्वीडन, जर्मनी और इंडोनेशिया समेत विश्व की अनेक सरकारों ने वृहद् पैमाने पर किए जा रहे बायोयूल के उत्पादन के कारणऋ जंगलो, पारीस्थितिक तंत्र और स्थानीय समुदायों पर पड़ने वाले प्रभावों को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की थी।' हालांकि छत्तीसगढ़ प्लानिंग बोर्ड के उपाध्यक्ष दीनानाथ तिवारी के मुताबिक 'जट्रोफा उत्पादन के कार्यक्रम से प्रदेश उर्जा सुरक्षा में आगे बढ़ेगा और वर्ष 2012 तक इससे गरीबों के जीवन स्तर को उूंंचा उठाने में मदद मिलेगी।' इंकार नहीं किया जा सकता कि यदि जट्रोफा से भारत की उर्जा संबंधी जरूरतें पूरी होने लगेंगी, तो बहुत बड़ी रकम देश के विकास के काम आ सकेगी। लेकिन इसके लिए क्या उन आदिवासियों को उनकी जमीन से हटाया जाना सही ठहराया जा सकता है, जिस पर वे वर्षो से रहकर अपना जीवन यापन करते रहे हैं। हालांकि डॉ संकेत ठाकुर जैसे जानकार इस बात से इंकार करते हैं कि छत्तीसगढ़ में प्राईवेट भूमि पर जट्रोफा लगाना सरकार की नीतियों में शामिल है। वे यह भी बताते हैं कि यहां पर निजी कंपनियों को इस काम के लिए ठेका न देकर स्वयं सरकार द्वारा ही जट्रोफा रोपण का कार्य किया जा रहा है। डॉ ठाकुर कहते हैं कि ये जो लोग विरोध करते हैं, या तो वे अज्ञानी हैं अथवा बहुत ही होशियार हैं। वे कहते हैं कि विरोध तो किया जा रहा है, लेकिन कोई विकल्प क्यों नहीं सुझाया जाताऋ जबकि बायोयूल के ढेरों विकल्प मौजूद हैं। वहीं नवदान्य की अध्यक्ष डॉ वंदना शिवा 'जट्रोफा रोपण की अंधी दौड़ को पारीस्थितिकीय, आर्थिक और सामाजिक संकट' बताती हैं।
ठेकेदार, सरकार, गैर-सरकारी संगठन एवं वन विभाग अपने तरीके से जट्रोफा और जमीन की उठापटक में लगे हैं। लेकिन इन सबके बीच क्या जनसरोकार सुरक्षित रहेंगे, या एक बार फिर आदिवासी शातिर लोगों की चाल का शिकार बनकर रह जाएंगे।

इंडिया फांउडेशन फॉर रूरल डेव्लपमेंट स्टडीज
रूम नं 406, 49-50 रेड रोज बिल्डिंग
नेहरू प्लेस, नई दिल्ली-११००१९
(किसी को उजास से सामग्री उठाने के के लिए अनुमति आवश्यक नहीं है, लेकिन स्रोत का यदि उल्लेख रहेगा तो अच्छा लगेगा। प्रस्तुत स्टोरी सोपान स्टेप पत्रिका में प्रकाशित है, जिसे 'मेरी ख़बर' ( http://merikhabar.com/fullstory.aspx?storyid=452#)ने अपना स्वत्वाधिकार बताकर पुनर्प्रकाशित किया है.)

3 comments:

Anonymous said...

ये हालत केवल छत्तीसगढ़ की ही नहीं बल्कि देश के हर उस इलाके की है जहां आदिवासी हैं। हर जगह वनवासियों से उनका वास छिनने की खबरें आती रहती हैं। उन्हें कहीं जट्रोफा के नाम पर तो कहीं वन्यजीवों की सुरक्षा के नाम पर उजाड़ने की कवायदें चलती रहती हैं।

फ़िरदौस ख़ान said...

good article...

manas mishra said...

विकास के नाम पर आज सिर्फ हम विनाश की ओर बढ़ते जा रहे हैं। किसी का घर उजाड़ते हैं तो कहीं सिंगूर जैसी जगहों पर छल-कपट के बल पर किसानों की जमीनें हड़पी जा रही हैं। शायद मानवता के अंत का आरम्भ हो चुका है। वह भी विकास के नाम पर।