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Monday, September 8, 2008

धारा के विपरीत जंग


बात दलितों के तथाकथित रहनुमाओं की चली है तो चर्चा को थोड़ा और आगे; वड़ोदरा के डिवेयर गांव में लेकर चलते हैं, जहां दलितों को अपना अधिकार पाने के लिए किसी चंद्रभान प्रसाद की जरूरत नहीं पड़ती। पटेल जाति के सवर्णों के घर पानी भरने वाले पूरे गांव के दलितों ने एकजुट होकर बंधुआ मजदूरी के विरोध में हड़ताल कर दी और उनके खेतों में काम करने से इंकार कर दिया। - उमाशंकर मिश्र


वड़ोदरा जिला मुख्यालय से करीब 50 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है सीनोर तालुका का गांव; डिवेयर। लम्बे समय तक पटेल सवर्णों के वर्चस्व के अधीन रहने वाले इस गांव में पाटनवािड़या के अलावा वसावा आदिवासी, हरिजन, बुनकर, वाल्मीकि और वाघरे समुदायों के करीब 450 दलित परिवार भी रहते हैं। डिवेयर में पटेल और दलितों की जनसंख्या का अनुपात लगभग बराबर होने के बावजूद लम्बे समय तक यहां पटेल जाति के लोगों का ही सिक्का चल रहा था। लेकिन गांव के दलितों की एकजुटता, उनके साहस और प्रतिबद्धता के चलते आज सिक्का उलट चुका है और अब किसी तरह का रुआब दलितों पर झाड़ने से पटेल समुदाय के लोग यहां कई बार सोचते हैं।
अपने पिता को खेत पर खाना देकर साईकिल पर लौट रहे एक नवयुवक को गांव के कुछ दबंगों ने रोककर कहा कि साईकिल इतनी चलाकर क्यों जा रहा है? इस बात को लेकर लड़के की जमकर पिटाई भी कर दी गई। डिवेयर की दलित बस्ती में रहने वाले रमेष को पटेल जाति के सवर्णों का कोपभाजन सिर्फ इसलिए बनना पड़ा क्योंकि दलित होने के बावजूद उसने सामंतवादी मानसिकता से जकड़े हुए रईसों के सामने साईकिल चलाकर और वो भी तेज; जाने की हिमाकत की थी। सजा के तौर पर लड़के को बेरहमी से पीटा गया। लम्बे समय से गांव के सवर्णों के अत्याचारों की पीड़ा को सहता आ रहा डिवेयर गांव का दलित समुदाय इस पिटाई की टीस को अब बर्दाश्त करने के मूड में नहीं था। दलित नवयुवकों का खून इस पर खौल उठा और अब तक बंटकर रहने वाले ये लोग इस बात को लेकर आक्रोशित होने लगे। दलित युवाओं ने पटेल जाति के उन दबंगों को सबक सिखाने के लिए मारपीट करने का मन बन लिया था। लेकिन बस्ती के बड़े बुजुर्गों ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। अगले दिन जुलाई 2004 में 55 वर्षीय वयोवृद्ध ईश्वर भाई की अगुवाई में कुलदेवी के थान पर बने चबूतरे पर सब इकट्ठे हुए और इस अत्याचार के खिलाफ कैसे लड़ा जाए; इस बात को लेकर विचार किया जाने लगा। अंत में सबने मिलकर सहमती ज़ाहिर करते हुए सवर्णों के खेतों में काम नहीं करने का मन बना लिया।
खेत में काम करने जाते वक्त खाने के बर्तन घर से ही लेकर जाना, मंदिरों में प्रवेश की मनाही और शादी ब्याह में खाने के लिए बर्तन घर से ले जाने की बाध्यता डिवेयर के दलित समुदाय के लिए पीढ़ियों से बनी हुई थी। किसी दलित परिवार के अमूमन सभी सदस्यों को सुबह की पहली किरण पटेलों के घर में ही देखने को मिलती थी। शाम होने तक पुरुषों को जहां खेतों में बैलों की तरह जोत दिया जाता था तो महिलाओं को घर पर रहकर झाड़ू-बर्तन जैसे काम करने पड़ते थे। यही नहीं दलितों के बच्चों को भी पशुओं को चराने के लिए भेज दिया जाता था। जबकि इस हांड़-तोड़ मेहनत के बदले उन्हें 25 से 30 रुपये ही मजदूरी के तौर पर दिये जाते थे। डिवेयर के ग्रामीणों ने बताया कि कम मजदूरी के चलते बमुश्किल खाने भर का ही जुगाड़ हो पाता था। डिवेयर की ही अंबूभाई बताते हैं कि ``पटेलों के डर से कोई उनके सामने मजदूरी के लिए मजदूरी के लिए मुंह खोलने की हिम्मत भी नहीं कर पाता था।´´ ऐसे में कभी-कभार शादी-ब्याह जैसे अवसरों पर पटेलों से कर्ज लेना पड़ता था। यहां कई दलित परिवार ऐसे भी हुआ करते थे जिनमें कर्ज की यह विष-बेल पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थी और इसी की एवज में उन्हें मजबूरन सवर्णों के खेतों में बंधुआ मजदूरी करनी पड़ती थी। एक बार सवेरे घर से निकल जाने के बाद वापस आने का कोई समय तय नहीं रहता था। कुछ लोगों ने तो यहां तक कहा कि ``बहुत से त्यौहार भी हमने खेतों में ही बिताए हैं।´´ कुछ ग्रामीणों ने बताया कि कोई यदि होमगार्ड की नौकरी करता है तो उसकी हिम्मत नहीं थी कि वह इन दबंगों के सामने से वर्दी पहन कर निकल जाए। गांव में एक `मिल्क प्रोड्यूस कमेटी´ भी है, जिसमें 80 प्रतिषत दूध दलितों के यहां से ही जाता था, लेकिन कमेटी में दलितों की भागीदारी कभी नहीं रही और अगड़ों का ही कब्जा बना हुआ था। गांव में किसी तरह की सभा बुलाना भी दलितों के लिए प्रतिबंधित हुआ करता था। ऐसे में वे आपस में समस्या को लेकर चर्चा भी नहीं कर पाते थे। यदि कोई मेहमान दिन के समय आ जाता तो भी दलित मजदूरों को घर पर आने की इजाजत नहीं होती थी और आगंतुक को शाम तक उनका इंतजार करना पड़ता था। दलित बस्ती के ही एक 62 वर्षीय बुजुर्ग ने बताया कि ``हम लोगों को तो उनके बच्चों को भी मोटा भाई (बड़ा भाई) कह कर बुलाना पड़ता था, जबकि वही बच्चे हम जैसे बड़े-बूढ़ों को भी नाम लेकर बुलाया करते थे।´´
संसाधनों के अभाव में गुजर-बसर करने वाले डिवेयर के दलितों के लिए विरोध की डगर पर चलने का फैसला आसान नहीं था। सामाजिक कार्यकर्ता रमेष बताते हैं कि सीनोर तालुका में 41 गांव हैं और सवर्णों का दलितों के प्रति अत्याचार सबसे अधिक डिवेयर में ही था। खेती-बाड़ी अधिक न होना दलितों के लिए एक अभिशाप बन गया था और मजबूरन पेट पालने के लिए उन्हें गांव रईसों के यहां दिन भर खटना पड़ता था। भरत भाई की मानें तो दिन भर काम के बदले ऊंट के मुंह में जीरे समान मजदूरी मिलती थी। आगे भरत बताते हैं कि ``लम्बे समय तक यहां के दलितों के पिछड़े होने का कारण एकजुटता का अभाव था। दूसरी ओर पटेल हमेशा मिलकर निर्णय लिया करते थे। वे कहते हैं कि हम मार खाते-खाते थक गए थे।´´ बकौल रमेष 95 प्रतिषत जमींदारी यहां सवर्णों के पास ही है। दादागीरी का आलम यह था कि सार्वजनिक परती भूमि में से भी दलितों को पषुओं के लिए चारा लेने की छूट नहीं थी। इस तरह से अपने खाने के अलावा पशुओं के चारे के लिए भी डिवेयर का दलित समुदाय सवर्णों की दया पर निर्भर बना हुआ था। हड़ताल के शुरूआती दिनों में इन्द्रदेव ने भी इन लोगों की परीक्षा लेनी चाही और लगातार बरसात होने के कारण इन मजदूरों को करीब एक महीने तक काम नहीं मिला। ऐसे में आसपास के गांवों से 125 मन अनाज इकट्ठा किया गया और इस बात के निर्देश बस्ती में जारी कर दिये गए कि यदि किसी के पास खाने को नहीं हो तो वह इस भंडार से ले जा सकता है। बरसात बंद हो जाने पर लोग काम पर जाने लगे तो खाने की समस्या खत्म हो गई। बाहर जाकर काम करने से 50 रुपये मजदूरी के तौर पर हर व्यक्ति को मिलने लगी थी, पहले की अपेक्षा यह रकम दोगुने के बराबर थी। पटेल जाति के श्रमिकों के अलावा धीरे-धीरे अन्य वर्गों के मजदूर भी दलितों के साथ आने लगे।
जमींदारों के खेतों में काम न करने की हड़ताल से गांव के दलितों के लिए समस्या बढ़ने लगी थी। रोज कमाकर खाने वाले दलितों के लिए अब भोजन की समस्या भी आकर खड़ी हो गई। गांव में काम नहीं रहा तो दलित मजदूरों ने अन्य स्थानों पर काम की तलाष में जाना शुरू कर दिया। डिवेयर में एक तरह से मजदूरों का अकाल सा हो गया। ऐसे में डिवेयर के सवर्णों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और आसपास के गांवों में इस बात का विरोध जताने पहुंच गए कि डिवेयर के मजदूरों को यहां काम क्यों दिया जा रहा है? हड़ताल के एक साल बाद अपै्रल 2005 में झगड़ा भी हो हुआ; लेकिन आसपास के गांवों - सुरासामल, मीढोल, मांडवा और बाविड़या में रहने वाले पाटनवािड़या समुदाय के लोगों ने श्रमिकों को आष्वासन दिया कि तुम्हें यहां काम मिलता रहेगा, इससे उन लोगों की हिम्मत बढ़ गई। मारपीट की षिकायत लेबर कमिष्नर के पास की गई। लेकिन उल्टे रमेष नाम के एक सामाजिक कार्यकर्ता को 15 दिन के लिए जेल में डाल दिया था। गांव वाले बताते हैं कि रमेष तो मारपीट के समय घटनास्थल पर मौजूद ही नहीं था। ऐसे में परिस्थितियों को समझा जा सकता है। इन सबके बीच पीढ़ियों से बंधुआ मजदूरी के जाल में जकड़े हुए मजदूरों को एक नई राहत मिलनी शरू हो गई थी। हालांकि की अगड़ों की जमात का एक बड़ा हिस्सा अभी भी दलितों को अपने चंगुल से आजाद करने के लिए तैयार नहीं था और उनके बाप-दादा के जमाने से चले आ रहे कर्ज का हवाला देते हुए अपने खेतों में उनसे कराने के लिए निरंतर दबाव डाला जाता रहा। लेकिन कोर्ट के आदेश के बाद दलितों के ऊपर दषकों से चला आ रहा कर्ज का बोझ खत्म हो गया।
कुछ समय पहले तक डिवेयर गांव की पंचायत में दलितों के लिए कोई स्थान नहीं था। पेंषन, छात्रवृत्ति, राषनकार्ड जैसी चीजों के लिए भी पंचायत से स्वीकृति इन लोगों को नहीं मिल पाती थी। यही नहीं गांव के कई लोगों ने बताया कि जब वे पुलिस के पास अत्याचार की षिकायत लेकर जाते थे तो पहले आरोपित दबंगों से फोन करके पूछा लिया जाता था। चंदूभाई कहते हैं कि ``कुछ समय पहले तक पंचायत में बोलने के लिए एड़ी चोटी की हिम्मत को जुटाकर एक कर देना पड़ता था और एक कोेने में हम चुपचाप हाथ बांधकर खड़े रहते थे।´´ चंदूभाई उर्फ लउगनभाई डिवेयर में हुए परिवर्तन के प्रतीक कहे जा सकते हैं, क्योंकि कभी पंचायत सभा में सिर झुकाकर खड़े रहते थे, लेकिन आज वे गांव के उपसरपंच हैं और सिर झुकाकर नहीं बल्कि उत्साहपूर्वक सिर उठाकर बात करते हैं। गांव की सरपंच भी एक महिला हैं। पटेल जाति के लोग जो हमेशा से सरपंच की कुर्सी पर काबिज थे, उन्होंने 2007 पंचायत चुनाव में अपनी उम्मीदवारी दलितों की एकजुटता के चलते हार जाने के डर से पहले ही छोड़ दी थी।
गांव वालों ने यह भी बताया कि हमारे भीतर नैतिक हिम्मत तो थी, लेकिन रास्ता दिखाने वाला कोई भी नहीं था। ऐसे मेंं अहमदाबाद की नवसर्जन नामक संस्था आगे आई और इन लोगों के कार्य को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया। इस बीच पटेलों के प्रभाववष कलैक्टर ने भी गांव में आकर समझौता कराने की कोषिष की। लेकिन गांव के दलितों साफ इंकार कर दिया और कहा कि जब हमारी कर्ज माफी, सरकारी जमीन के उपयोग, अत्याचार से सुरक्षा, दूध की डेयरी में भागीदारी, ग्राम पंचायत में समानता और उचित मजदूरी समेत 12 सूत्रीय मांगें नहीं मानी जायेंगी तब तक हड़ताल चलती रहेगी। हालांकि औपचारिक तौर पर शायद ही कभी कोई बात इन लोगों की मानी गई हो, लेकिन अपनी एकजुटता एवं प्रतिबद्धता से डिवेयर के दलित समुदाय ने आज अपनी पहचान खुद कायम कर ली है और गांव के सवर्णों को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया है।
कभी पुलिस को देखकर भाग जाने वाले इन लोगों में अब हिम्मत आ गई है और वे न केवल परिवार बल्कि गांव कैसे चलाया जाता है; इस बात की भी कला सीख गए हैं। पंचायत में कभी सिर झुकाकर चुपचाप खड़े रहने वाले लोेग आज खुद कुर्सी पर बैठकर लोगों की समस्याएं सुनते हैं। उपसरपंच चंदूभाई बताते हैं कि हमने विभिन्न सरकारी योजनाओं की पहचान करके उससे प्राप्त राशि को गांव के विकास में लगाया है। पुलिया, खड़ंजे, गटर लाईन जैसे कार्य किए गए हैं। इसके साथ साथ साथ विभिन्न आवासीय योजनाओं के तहत घर बनाकर भी कुछ लोगों को दिये गए हैं। गांव में रोजगार गारंटी कार्ड भी बनने शुरू हो गए हैं और कुल मिलाकर अब ऐसा लगता है कि डिवेयर का अंधेरा अब ढल चुका है।

1 comment:

Satyendra Prasad Srivastava said...

डिवेयर के दलितों ने ये दिखा दिया कि अपनी लड़ाई कैसे लड़नी चाहिए। उनके हौसले और साहस को सलाम