एक झलक स्वर्णनगरी की
अक्सर कहा जाता है कि भारत गांवों में बसता हैं। महात्मा गांधी भी ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए जोर देते थे, क्योंकि उनका मानना था कि देश की तरक्की का मार्ग ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण में ही समाहित है। भारत के विभिन्न अंचलों में विभिन्न ग्रामीण उद्योग लोगों की आजीविका का साधन रहे हैं और स्थानीय स्तर पर निर्मित इन उत्पादों की गुणवत्ता और उपयोगिता के आधार पर ही संबंधित स्थान को ख्याति प्राप्त होती थी। लेकिन समय के साथ ये कलाएं आधुनिकता की गर्त तले दबकर दम तोड़ने लगी हैं। मरुभूमि राजस्थान में स्वर्णनगरी जैसलमेर की ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ स्थानीय लोकजीवन में भी पट्टू का विशेष स्थान रहा है। पट्टू एक प्रकार की शॉल है, जिसे भेंड़ के ऊन से बनाया जाता है। एक समय था जब खादी एवं ग्रामोद्योग विभाग भी पट्टू की बुनाई के लिए बुनकरों को प्रोत्साहन दिया करता था। दूसरी तरफ जैसलमेर के लोकजीवन में भी इसका विशेष महत्व हुआ करता था। विशेष अवसरों जैसे शादी ब्याह इत्यादि में मेहमानों को पट्टू ओढ़वा कर उनका सम्मान किया जाता था। जैसलमेर का मुख्य व्यावसाय पशुपालन है। यहां लगभग 9 लाख भेड़ें हैं। एक भेंड़ पर एक साल में यदि एक किलोग्राम ऊन पैदा हो तो 9 लाख किलोग्राम ऊन का उत्पादन हो सकता है। जिला सूचना अधिकारी शंभू दान रतनू के मुताबिक पहले जब खादी की गतिविधियां अपने चरम पर थी तो उस दौरान करीब 15 हजार कतीने हुआ करते थे। जबकि बुनकरों की संख्या 15 सौ थी, जो इन कतीनों को बुनते थे। खिड़या पर पट्टू की बुनाई होती थी। पट्टू के विविध प्रकार होते हैं। हीरावल पट्टू अपनी डिजाईन मजबूती के लिए जाना जाता था। विभिन्न अवसरों पर अलग अलग रंगों के पट्टू का प्रयोग होता था। शादी ब्याह में गुलाबी एवं हरे पट्टू का उपयोग होता था। पट्टू की तरह ही एक अन्य शॉल होती है, जिसे बरडी कहा जाता है। इसके अलावा राजीव शॉल, बंधेज की शॉलें, कसीदाकारी की शॉलों का भी विशेष स्थान रहा है। यहां इन शॉलों को तैयार करके कसीदाकारी के लिए अमृतसर भेजा जाता था। इस तरह से स्थानीय बुनकरों, खादी संस्थाओं और इस कार्य में जुटे अन्य लोगों को करीब 5 करोड़ रुपये की आमदनी हो जाया करती थी। जैसलमेर जैसे मरुप्रदेश में जीवन की कठिन परिस्थितियों के बीच इस तरह की कलाओेंं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। यहां राजपूतों में शादी ब्याह की दिक्कत होने के कारण शाटा प्रथा का प्रचलन है। शाटा प्रथा में लड़कियों की अदला बदली की जाती है। अथाZत यदि कोई अपनी बेटी ब्याहता है तो वर पक्ष की ओर से भी बेटी देनी पड़ती है। ऐसे में अक्सर यहां बेमेल विवाह हो जाया करते थे। बेमेल विवाह के कारण कई बार पुरुष की असमय मृत्यु हो जाती थी। पर्दा प्रथा का प्रचलन था, ऐसे समय में महिलाएं घर पर रहकर ही कुछ न कुछ काम करके गुजर बसर करती थी। खड़ी से इन महिलाओं को रोजगार मिल जाया करता था। लेकिन समय के साथ पट्टू अपनी पहचान खोता जा रहा है। मशीनीकरण से बुनकरों और ग्रामीण दस्तकारों के हाथ कट गए हैंं। एक तो अधिक मेहनत के कारण हाथ की बुनाई में समय लगता है तो दूसरी और इसकी कीमत भी इसके कारण बढ़ जाती है। देसी ऊन मोटी होने के कारण थोड़ी चुभती है, समय के साथ इसमें बदलाव नहीं किया जा सका। अब तो पट्टू भी इम्पोटेZड फाईबर्स की बनने लग गई है। लेकिन आज भी ग्रामीण को रोजगार प्रदान करने में इन पारंपरिक कलाओं का कोई सानी नहीं हैं। थोड़ा ही सही लेकिन इस तरह के उद्योगों से लोगों को रोजगार मिलता रहा है और यही शायद यही कारण था कि भारत अपनी ग्रामीण आत्मनिर्भरता के लिए जाना जाता था। लेकिन अंग्रजी शासन के दौरान वे परंपराएं और ग्रामीण अर्थव्यवस्था का चक्र विखंडित हो गया। जिससे हमारे गांंव आज भी उबर नहीं पाए हैं। यही कारण है कि लोगों को अपना घर परिवार छोड़कर रोजी रोटी की तलाश में पलायन करना पड़ता है। घर पर रहने वाली महिलाओं और बच्चों का दबंगों द्वारा शोषण किया जाता है। जबकि घर का पालनकर्ता परदेस में रहकर दो जून की रोटी जुटाने के लिए हर पल जलता रहता है। हमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था के उन सूत्रों को तलाशना होगा जिसके कारण हमारे गांव आत्मनिर्भर रहे हैं। और उन्हीं सूत्रों का अनुसरण करते हुए हमें एक बार फिर ग्रामीण अर्थव्यवस्था में प्राण फूंकने की पहल करनी होगी।
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