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Friday, January 11, 2008

रोज़गार गारंटी योजना है..पर रोज़गार नहीं

फ़ैसल मोहम्मद अली, भोपाल

रोज़गार गारंटी योजना को 'सबसे बेहतर तरीके से लागू' करने का दावा करने वाले मध्य प्रदेश में स्थिति ख़राब है.
योजना शुरू होने के लगभग दो साल बाद भी काम पाने के लिए सबसे ज़रूरी दस्तावेज़ जॉब कार्ड ही लोगो को नहीं दिया गया है.
एक सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर-पूर्वी मध्य प्रदेश के चार ज़िलों में ही साढ़े सोलह प्रतिशत से अधिक लोगों को जॉब कार्ड नहीं मिल पाए हैं.
लेकिन शासन का दावा है कि राज्य के जिन इकत्तीस ज़िलों में ये योजना लागू की गई है वहाँ जॉब कार्डो का वितरण लगभग एकसौ इकत्तीस प्रतिशत है.
यानी जनगणना के मुताबिक़ राज्य में इस योजना के तहत आने वाले कुल परिवारों से ज़्यादा लोगों को प्रशासन ने ज़रूरी दस्तावेज़ प्रदान किए हैं.
ग्रामीणों को रोज़गार मुहैया कराने के उद्देश्य से भारत सरकार ने पिछले साल फ़रवरी महीने में रोज़गार गारंटी योजना की शुरूआत की थी.
'फ़र्ज़ी जॉब कार्ड'
भोजन का अधिकार अभियान समूह के कार्यकर्ता सचिन जैन के अनुसार ये स्पष्ट है कि बड़े पैमाने पर फ़र्ज़ी कार्ड बना कर फ़ंड के वितरण में घोटाला किया जा रहा है जबकि ग्रामीण योजना के फ़ायदे से वंचित हैं.
समूह ने रोज़गार गारंटी योजना पर एक स्टडी जारी की है जिसमें कहा गया है कि कुल बाँटे गए जॉब कार्डों में लगभग पैंतालिस प्रतिशत फ़र्ज़ी हैं.
स्टडी के मुताबिक़ "ना तो हर हाथ को काम है और ना ही काम का पूरा दाम है जिसका दावा संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने इस योजना को लागू करते समय किया था.''
छतरपुर ज़िले के केसीपुरा गाँव के नंद राय का कहना है कि उनके और उनके गाँव के चालीस अन्य दलित परिवारों के पास जॉब कार्ड होने के बावजूद एक दिन भी काम नहीं मिल पाया है.
लुभावने वादों की 'सच्चाई'
केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार की सबसे महत्वपूर्ण योजना कही जाने वाली इस योजना में मध्य प्रदेश ने पिछले दो सालो में लगभग दो हज़ार करोड़ रूपए ख़र्च करने का दावा किया है.
इसके आधार पर मध्य प्रदेश को देश में रोज़गार गारंटी योजना लागू करने वाला सबसे उत्तम प्रदेश क़रार दिया गया है.
'अव्वल प्रदेश' में योजना की हक़ीकत जानने के लिए पाँच ज़िलो में टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सतना और अशोक नगर में की गई 'ज़मीनी पड़ताल' से पता चला कि मज़दूरों से काम के लिए आवेदन ही नही लिए जाते हैं.
इन्हीं आवेदनो के आधार पर उन्हे निश्चित अवधि में काम मिलने की गारंटी सुनिश्चित होती है.
ऐसा न होने की स्थिति में ज़रूरी बेरोज़गारी भत्ता भी उन्हें नही दिया जाता है.इसके साथ ही योजना का छमाही आकलन यानी सोशल ऑडिट भी गाँव वालों कि सहभागिता से नहीं हो रहा है.
स्वयंसेवी संस्था का कहना है कि वो इस रिपोर्ट को शासन को सौंपकर एक निष्पक्ष एजेन्सी से पूरे मामले की जांच कराने की मांग करेगीं.
साभार : बी।बी।सी. हिन्दी रविवार, 30 दिसंबर, 2007

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