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Friday, January 11, 2008

आदिवासियों से सीखें नारी सशक्तीकरण

दिल्ली [आशुतोष शुकल]। कल्पना करें एक ऐसे समाज की, जिसमें घर की बुजुर्ग महिला की मृत्यु के बाद घड़े में उसकी अस्थियां रखी जाती हैं। स्त्री को 'हितदेवी' का दर्जा देकर परिजन अस्थियों वाला कुम्भ घर में ही स्थापित कर देते हैं। अब यह देवी उसी तरह परिवार पर कृपा करेंगी, जैसे जीवित रहते करती थीं।
यह कल्पना नहीं, हकीकत है। नारी सशक्तीकरण के शोर और तमाम सरकारी आयोजनों के बीच देश के 12 करोड़ आदिवासियों के समाज में स्त्री बिना किसी आडंबर व प्रपंच के जिस तरह सदियों से परिवार की कर्ता है, वह सभ्य समाज के लिए कौतुक भी हो सकता है और अनुकरणीय भी। दिल्ली में हाल ही में खत्म हुआ आदिवासी सम्मेलन ऐसी कई जानकारियों से भरपूर था। जिस समाज को अशिक्षित और पिछड़ा कहकर शहरों में उसे सुधारने की योजनाएं बनती और वहीं परवान चढ़ जाती हैं, वहां स्त्री का व्यक्तित्व दबा हुआ नहीं है।
इस समाज में शादी से पहले भावी वर को लड़की के घर में छह महीने 'इंटर्नशिप' करनी होती है। वह चाहे मजदूरी करे, लेकिन उसे पर्याप्त कमा कर लड़की के पिता को यह भरोसा दिलाना होता है कि वह उसकी बेटी का भरण-पोषण कर सकता है। वहां दहेज नहीं, स्त्री के उत्पीड़न का प्रश्न नहीं। स्त्री विधवा हुई, तो परिवार के बाहर विवाह कर पति को पुराने पति के घर ला सकती है।
गुजरात के आदिवासी कवि कांजी भाई पटेल और भीलों के महाभारत को लिपिबद्ध करने वाले आदिवासी अकादमी, वड़ोदरा के निदेशक डा. भगवानदास पटेल आदिवासी समाज को समतामूलक बताते हैं। उनके मुताबिक साबरकांठा जिले के डोंगरी भीलों के महाभारत में जुआ तो है, लेकिन उसमें द्रौपदी का चीरहरण नहीं होता। वहां कुंती और द्रौपदी का ओजस्वी चित्रण है। उनकी सलाह के बिना घर में पत्ता नहीं हिलता। आदिवासी नहीं मानते कि महाभारत का युद्ध द्रौपदी के कारण हुआ। शहरवासी क्या विश्वास करेंगे कि भादो में जब 'भीलों की भारथा ' का मंचन होता है, तब गुरु के स्थान पर गृहस्वामिनी की स्थापना होती है और उनकी सशरीर पूजा होती है। भीलों के रामायण में सीता न अग्निपरीक्षा देती हैं और न धरती में समाने को विवश हैं।
कांजीलाल पटेल और महाराष्ट्र के वाहरु सोनवणे हों या उत्तर प्रदेश के गारु चिंचले, वे मानते हैं कि भौतिक अर्थो में पिछड़े आदिवासी सामाजिक दृष्टि से आगे हैं। यहां आज भी मातृसत्ता है। उनके मुताबिक उत्तर प्रदेश और राजस्थान के सहरिया, बिहार व बंगाल के मुंडा हों या मदारी जैसे घुमंतू समाज, सभी जगह स्त्री बिना किसी घोषणा के प्रधान है। अगर हिंदी प्रदेशों में बहुधा दिखने वाली घुमंतू जाति नटों पर दृष्टि डाली जाए, तो उनमें शादी के लिए लड़के के साथ जाने वाले पड़ोसी घर से खाना लेकर जाते हैं, ताकि लड़की के पिता पर भार न पड़े।
साभार : दैनिक जागरण Jan 11, 2008

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