खुशवन्त सिंह
जिस दिन भारत का शेयर बाजार 20 हजार के आंकड़े को छू रहा था और मुकेश अंबानी को दुनिया का सबसे अमीर आदमी घोषित कर दिया गया था, वहीं दूसरी ओर 20 हजार पुरुष एवं महिलाएं मध्य भारत से (ग्वालियर -दिल्ली) तक पैदल यात्रा की। उनकी यह यात्रा इस बात को लेकर प्रदशन के लिए थी कि उनके पास दिन के एक समय का पर्याप्त भोजन तक नहीं है। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि भारत जैसा देश, जिसे दुनिया के निर्धनतम देशों की दीघाZ में रखा जाता है( दुनिया का सबसे धनाढ्य व्यक्ति भी वहीं पर ही है। जिन 20 हजार लोेगों ने राजधानी तक का सफर तय किया था, वे इस बात की आशा लेकर आए थे कि यहां उनकी बात सुनी जाएगी। ये वही लोग थे, जिन्हें बांधों तथा फैिक्ट्रयों के निर्माण एवं खनन जैसे कार्याेंं को अंजाम देने के लिए अपनी ही जमीन से बेदखल होना पड़ा था। इतने पर भी वंचितों के इस हुजूम ने अनुशासित होकर अपनी बात रखी, लेकिन यदि समय पर उनकी मांगों पर गौर नहीं किया गया तो वे फिर से अपनी बात रखने के लिए आएंगी, ऊंचे स्वर में अपनी बात को रखने के लिए, तब शायद उनका अनुशासनात्मक रवैया भी देखने को न मिल सके।
आज जरूरत है कि हम इस कठोर सत्य को समझें कि `अल्पसंख्यक धनाढ्य वर्ग और बहुसंख्यक गरीबों के बीच का अंतर एक लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार्य नहीं है।´ इस तरह की बातें राजतन्त्र अथवा तानाशाही वाले शासन का अंग हो सकती हैं। एक लोकतािन्त्रक देश होकर भी यदि हम अमीरों एवं अथाह गरीबों के बीच विषमता की खाई को न पाट सके, तो इसे अपराध, भ्रष्टाचार तथा हिंसा को बढ़ने से नहीं रोका जा सकेगा। दक्षिण कोरिया, ताईवान, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, यूरोप, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे अन्य लोकतािन्त्रक देशों को देखें तो वहां भारत जैसी गरीबी और न ही धन का इतने बड़े पैमाने पर केंद्रीकरण ही देखने को मिलता है। ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता है, जब इन देशों में लोग अपने घरों में नौकर रखते हों, वे खुद ही खाना बनाते हैं, खुद ही कार ड्राईव करते हैं और यहां तक कि टॉयलेट भी खुद ही साफ करते हैं। यह कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वर्ग विभेद भारत की तरह गहरा नहीं है। शायद इसीलिए इन देशों में भ्रष्टाचार, हिंसा और अपराधों में भी कमी देखने को मिलती है।
अंंबानी, बिरला, टाटा एवं अजीम प्रेमजी जैसे लोगों और गरीबी से ग्रस्त लोगों के बीच की विकराल विषमता को पाटना नििश्चत तौर पर हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। यह कैसे संभव हो सकेगा, मुझे नहीं मालूम, इस तथ्य के साथ कि हमारे पास शायद पर्याप्त भूमि न हो, जो भूमिहीनों को उपलब्ध कराई जा सके। लेकिन हम उनके लिए रोजगार तो पैदा कर ही सकते हैं, जिससे वे सम्मानपूर्वक जीवन-यापन के लिए पर्याप्त संसाधन जुटा सकें।
आज जरूरत है कि हम इस कठोर सत्य को समझें कि `अल्पसंख्यक धनाढ्य वर्ग और बहुसंख्यक गरीबों के बीच का अंतर एक लोकतांत्रिक समाज में स्वीकार्य नहीं है।´ इस तरह की बातें राजतन्त्र अथवा तानाशाही वाले शासन का अंग हो सकती हैं। एक लोकतािन्त्रक देश होकर भी यदि हम अमीरों एवं अथाह गरीबों के बीच विषमता की खाई को न पाट सके, तो इसे अपराध, भ्रष्टाचार तथा हिंसा को बढ़ने से नहीं रोका जा सकेगा। दक्षिण कोरिया, ताईवान, सिंगापुर, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, यूरोप, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे अन्य लोकतािन्त्रक देशों को देखें तो वहां भारत जैसी गरीबी और न ही धन का इतने बड़े पैमाने पर केंद्रीकरण ही देखने को मिलता है। ऐसा बहुत ही कम देखने को मिलता है, जब इन देशों में लोग अपने घरों में नौकर रखते हों, वे खुद ही खाना बनाते हैं, खुद ही कार ड्राईव करते हैं और यहां तक कि टॉयलेट भी खुद ही साफ करते हैं। यह कहने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि वर्ग विभेद भारत की तरह गहरा नहीं है। शायद इसीलिए इन देशों में भ्रष्टाचार, हिंसा और अपराधों में भी कमी देखने को मिलती है।
अंंबानी, बिरला, टाटा एवं अजीम प्रेमजी जैसे लोगों और गरीबी से ग्रस्त लोगों के बीच की विकराल विषमता को पाटना नििश्चत तौर पर हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। यह कैसे संभव हो सकेगा, मुझे नहीं मालूम, इस तथ्य के साथ कि हमारे पास शायद पर्याप्त भूमि न हो, जो भूमिहीनों को उपलब्ध कराई जा सके। लेकिन हम उनके लिए रोजगार तो पैदा कर ही सकते हैं, जिससे वे सम्मानपूर्वक जीवन-यापन के लिए पर्याप्त संसाधन जुटा सकें।
2 comments:
sharmnak hai yh hum sab ke liye...sarkar hai ki hamari baate sunti nahin hain...
yahi to kathit bahusankhyak raaj kaa sach hai.......
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