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Saturday, December 1, 2007

नव-उदारवादी विकास और शहरी-ग्रामीण आबादी में विषमता



टी. रविकुमार/रीडर, अर्थशास्त्र विभाग, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
यद्यपि गत तीन वर्ष राष्ट्रीय आय में 8.5 प्रतिशत की औसत वृिद्ध दर के साक्षी रहे हैं, इस विकास दर की प्रकृति ने कई मुद्दों को खड़ा कर दिया है, जिसमें से एक है इसका क्षेत्रीय विस्तार। यह महत्वपूर्ण है, क्योंकि इससे उस क्षेत्र में होने वाले विकास और सुविधाओं में होने वाली बढ़ोत्तरी का आकलन हो जाता है और यह पता चल जाता है कि उस क्षेत्र में हो रही प्रगति, निवेश के अनुरूप है अथवा नहीं। वर्तमान समय में भारत ने नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के सिद्धांत को आत्मसात् कर लिया है। बाजार अपनी शक्ति के अनुरूप काम करे इसके लिए महत्वपूर्ण बात यह है, कि बाजार की गतिविधियों में सरकार का हस्तक्षेप कम से कम हो और इसके लिए सुधार तथा प्रयास दोनो जारी हैं। इस क्रम में सरकार ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास में कटौती के प्रयास चालू कर दिये हैं। जिसके संभावित दुष्परिणाम शहरी-ग्रामीण असमानता की बढ़ती खाई के रूप में सामने आ रहे हैं। शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्र में शुद्ध घरेलू उत्पाद के ताजा आंकड़ों को वषZ 1999-2000 से जोड़कर देखें तो चालू मूल्यों पर एनडीपी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में 775,601 करोड़ रुपये था, जो पूरे देश के कुल एनडीपी के आधे से भी कम था। ऐसे में 90 के दशक के उत्तरार्ध में अर्थव्यवस्था का शहरी हिस्सा एक तरह से पहले की अपेक्षा अधिक प्रबल होने लगा था। जबकि 1993-94 में इस तबके की हिस्सेदारी महज 46.3 प्रतिशत ही थी। लेकिन इतने पर भी ग्रामीण क्षेत्र आज भी अपनी तीन चौथाई आबादी के चलते महत्वपूर्ण बना हुआ था। इसी दौरान प्रति व्यक्ति शुद्ध घरेलू उत्पाद (एनडीपी) शहरों में 30,183 रुपये था, जबकि ग्रामीण क्षेत्र में यह 10,683 के स्तर पर था और ग्रामीण तथा शहरी स्तर पर एनडीपी का प्रति व्यक्ति अनुपात 0.35 था, जो दर्शाता है कि शहरी आबादी, ग्रामीणों की अपेक्षा करीब तिगुनी आय का उपभोग कर रही थी। 1993-94 से 1999 के दौरान एनण्डीण्पीण् में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हिस्सेदारी में 5.44 फीसदी गिरावट दर्ज की गई थी, जो दर्शाता है कि शहरी क्षेत्र में विकास की दर ग्रामीण क्षेत्रों से अपेक्षाकृत अधिक थी।

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