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Wednesday, November 14, 2007

महंगाई और मुद्रास्फीति का सच


इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अर्थव्यवस्था में लैपटॉप सस्ते हो रहे हैं, लेकिन आलू प्याज के दाम निरंतर बढ़ते जा रहे हैं, वहीं 9 प्रतिशत की विकास दर से सरकार फूली नहीं समा रही है। दूसरी ओर हमारी खाद्य निर्भरता विदेशों पर आश्रित होती जा रही है और एक बार फिर देश `िशप टू माउथ´ की स्थिति में लौटता हुआ जान पड़ता है, ऐसे में क्या इस थोथी विकास की दर से लोगों का पेट भर जायेगा? पढ़िये `उमाशंकर मिश्र´ की विशेष रिपोर्ट -
हाल में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने मुद्रास्फीति की दर में गिरावट की घोषणा की गई थी। इस तरह की कवायदों के पीछे कुछ निहितार्थ भी छुपे होते हैंं, जिन पर धूर्तता की परतें चढ़ी हुई होती हैं। मुद्रास्फीति की दर के कम होने से क्या महंगाई में भी कमी होती है, यह एक बहुत बड़ा सवाल है, जो आम आदमी नहीं सोच पाता। समाचार माध्यमों की मार्फत मुद्रास्फीति में गिरावट की बात को ब्रम्हावाक्य मानते हुए आम इंसान अपने मन मस्तिष्क में आत्मसात् कर लेता है। जबकि हकीकत को आंकड़ों की चादर में कुछ इस तरह से ढक दिया जाता है, मानोे यही सत्य है। महंगाई के मामले में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। जब बढ़ती महंगाई ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया तो सरकार ने मुद्रास्फीति की दर को कम बताकर यह जताने का प्रयास किया कि सब कुछ समान्य है। लेकिन इस बात की क्या इसी तरह से सहजता से लिया जा सकता है? अभी ज्यादा समय नहीं बीता जब एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि देश की 79 प्रतिशत आबादी की आय 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम है। ऐसे में महंगाई के बढ़ने से क्या देश की बहुसंख्य आबादी की खाद्य सुरक्षा खतरे में नहीं पड़ जाएगी? दूसरी ओर देश की 60 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है और इस आबादी का मुख्य व्यवसाय कृषि है, जहां किसान आत्महत्या करने को विवश हैं। लेकिन सरकार का ध्यान वहां नहीं जाता। बल्कि किसानों को मरता हुआ छोड़कर सरकार कार्पोरेट कंपनियों के खेमे में खड़ी हुई जान पड़ती है। जिस तरह से विदर्भ के कपास किसानोें को मरता हुआ छोड़कर कॉटन मिलों को खड़ा करने की रणनीति अपनाई गई और जिस तरह से पिश्चमी महाराष्ट्र में चीनी मिलों को सिब्सडी दी जा रही है उससे सरकार का रवैया समझा जा सकता है। मुख्यधारा के अखबारों ने कृषि खाद्य उत्पादों की महंगाई से जुड़ी खबरों को प्रमुखता से छापा है, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि ग्रामीण ही नहीं बल्कि शहरी एवं अर्द्धशहरी आबादी भी महंगाई की मार से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी है। देश भर की मंडियों में प्याज 28 से 35 रुपये किलो बिक रहा है तो आलू की कीमत 12 रुपये प्रतिकिलो से 18 रुपये किलो तक है। सिब्जया,ें फलों, ग्रोसरी और अन्य कृषि उत्पादों के दामों में वृिद्ध ने आम आदमी को त्रस्त कर दिया है। ग्रामीण इलाकों की बहुसंख्य गरीब आबादी पहले ही प्रशासनिक उदासीनता की िशकार रही है, उस पर महंगाई की मार ने उन गरीबों कमर तोड़ कर रख दी है।
सबसे पहले तो मुद्रास्फीति की दर को मापने वाली थोक सूचकांक की अवधारणा ही गलत है। ग्राहकों की परिस्थितियों का आकलन तभी ठीक प्रकार से हो सकता है जब सूचकांक खुदरा मूल्यों पर आधारित हों। सरकार मुद्रास्फीति की दर पर लगाम लगाने के लिए कई तरह के कदम उठाती है। उल्लेखनीय है कि अर्थव्यवस्था में यदि पैसे का प्रवाह बढ़ता है तो उसकी वैल्यू कम हो जाती है। ऐसे में सरकार बैंकों की ब्याज दरें बढ़ा दी जाती है, जिससे लोग कम ऋण लेते हैं और प्रवाह कम होने लगता है। जब पैसे का प्रवाह बाजार में कम हो जाता है तो इससे थोक मूल्य सूचकांक कम हो जाता है। महंगाई जब भी बढ़ती है, सरकार यही नीति अपनाकर लोगों को आश्वस्त करने का काम करती है। जबकि विशेषज्ञ इस तरह की बात को छलावे का नाम देते हैं। देविंदर शर्मा जैसे कृषि मामलों के जानकार तो इस मुद्दे पर रिजर्व बैंक को भी कटघरे में खड़ा करते हुए जवाबदेही की मांग करते हैं। सरकार ने हमेशा से ही इस तरह के मुद्दों को लेकर गोलमोल रवैया अपनाया है। महंगाई की सबसे अधिक मार गरीबों पर पड़ती है, लेकिन सरकार ने हमेशा से ही उनके प्रति उदासीन रवैया अपनाया है। 90 के दशक में जिन लोगों को 2400 कैलोरी तक भोजन प्रतिदिन मिलता था, उन्हें गरीबी रेखा से नीचे रखा गया था। लेकिन योजना आयोग ने हेर-फेर कर इस सीमा को घटाकर 1800 कैलोरी प्रतिदिन कर दिया। इसी तरह पहले करीब 278 रुपये प्रतिमाह कमाने वाले को गरीबी रेखा से नीचे रखा गया था। लेकिन अब सुधार करने पर भी यह सीमा 350 रुपये तक ही पहुंच सकी है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या 350 रुपये महीना कमाने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है? यह नहीं भूलना चाहिए कि 9 प्रतिशत की विकास दर हासिल कर लेने से इस देश के गरीबों का पेट नहीं भर जायेगा। अमेरिका-परस्त सरकार को न्यूक्लीयर डील करने में अधिक दिलचस्पी है, भले ही इस डील में अमेरिका की मंशा अपने परमाणु कार्यक्रम को रिवाइव करने की ही क्यों न हो, लेकिन खाद्य सुरक्षा को लेकर सरकार विदेशों पर निर्भर होती जा रही है और विशेषज्ञों की मानें तो देश एक बार फिर `िशप टू माउथ´ की स्थिति में अग्रसर हो रहा है। इस तरह की खुले बाजार की नीति से क्या देश की खाद्य सुरक्षा को बचाया जा सकेगा? कार्पोरेट कंपनियों को बिचौलियों की भूमिका में लाकर खड़ा कर देने से क्या इस देश की गरीब जनता का उद्धार हो जाएगा? यह नहीं भूलना चाहिए कि हम अपनी खाद्य सुरक्षा खोते हैं राजनीतिक प्रधानता भी गंवा देते हैं।
इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अर्थव्यवस्था में लैपटॉप सस्ते हो रहे हैं, लेकिन आलू प्याज के दाम निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। उदारीकरण के बाद सकल घरेलू उत्पाद में कृषि की भागीदारी 33 प्रतिशत से घटकर 19 प्रतिशत रह गई है। बजट में भी सिंचाई के लिए 1ण्3 प्रतिशत तो टेलीकॉम के लिए 13 प्रतिशत रािश खर्च की जा रही है। स्पष्ट कि सरकार देश की 60 प्रतिशत ग्रामीण जनता को उपेक्षित दृिष्ट से देखती है। इन सब बातों से सरकार की दोगली नीतियां स्पष्ट हो जाती हैं। यह नहीं भूलना चाहिए कि विकास दर आंकड़ों की थोथी इबारत से काम नहीं चलने वाला सौ करोड़ लोगों के भोजन के लिए भी सोचना पड़ेगा।
सरकार नहीं चाहती कि इस देश के किसान खेती करें जिन्दा रहें। यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले करीब एक दशक में देश के करीब डेढ़ लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इसके बावजूद भी सरकारों का सामंती चेहरा नंदीग्राम की खूनी होली के रूप में सामने आता है, जहां अपनी जमीन का हक मांगने वाले किसानों पर गोलियां बरसाई जाती हैं। यह इस देश की हकीकत है। सरकार यह तो नहीं करती कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को बेहतर बनाकर भूखों के लिए दो वक्त की रोटी का इंतजाम करे, सरकार यह भी नहीं करती कि बेरोजगार युवाओं की भीड़ को रोजगार उपलब्ध करवाकर उनकी हताशा को कम करने का प्रयास करे और न ही सरकार कृषि की दशा सुधारने को प्रतिबद्ध जान पड़ती है। सरकार को फिक्र है तो सिर्फ और सिर्फ न्यूिक्लयर डील की, जिससे उसकी अमेरिका-परस्ती बची रहे आका नाराज न हों ( गेहूं तो आस्ट्रेलिया अथवा अमेरिका से आयात कर ही लिया जाएगा।
अक्सर लोग कहते हुए मिल जाएंगे कि आज लोगों की परचेजिंग पावर बढ़ गई है। 84 करोड़ लोग जिनकी आय 20 रुपये प्रतिदिन होने की बात कही जा रही है, उनकी परचेचिंग पावर कितनी बढ़ी होेगी, इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है। मुकेश अंबानी आज बीवी के जन्मदिन पर करीब 3 अरब रुपये का उपहार दे देते है, तो दूसरी ओर देश की बहुसंख्य आबादी रोटी को मोहताज है। विसंगतिपूर्ण विकास का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि देश की करीब 26 प्रतिशत आबादी 9 प्रतिशत की विकास दर के बावजूद भी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। गरीबी रेखा का मापदंड भी सरकार ने अपनी सहूलियत के हिसाब से निर्धारित कर लिया है अन्यथा यह आंकड़ा बढ़ भी सकता था।
सेंसेक्स के उछलते आंकड़े और विकास दर वास्तविकता बयां नहीं करते, इस देश का नागरिक जब वोट देने जाता है तो वह विकास दर नहीं रोटी, कपड़ा, मकान की बात पहले सोचता है, इसे भी उसकी अपनी ही सरकार चमकदार विकास की दमक दिखाकर आज छीन लेना चाहती है।

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