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Wednesday, October 3, 2007

सहकारिता- सब एक के लिए, एक सब के लिए


विश्व भर में करीब 800 मिलियन लोग कोऑपरेटिवस के सदस्य हैं, और अनुमान है कि इनमें करीब 100 मिलियन लोगों को रोजगार मिला हुआ है।

सहकारिता को अगर जमीनी स्तर पर समझने के लिए किसी आदर्श वाक्य में पिरोया जाए तो कहा जा सकता है कि ''सब एक के लिए, एक सब के लिए।'' इसी तरह जनता को पारस्परिक सहयोग के आधार पर स्वावलंबन एवं आत्मनिर्भर जीवन जीने के लिए तैयार करने का उद्देश्य सहकारिता के मूल में समाया हुआ है। जबसे स्वयं-सहायता समूहों ने अपनी सफलता के परचम फहराकर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण की ओर कदम बढ़ाने शुरु किए हैं; तो सरकार को भी लम्बे समय तक उपेक्षित पड़े रहने वाले सहकारी क्षेत्र की सुध हो आई और आज 4 प्रतिशत की कृषि विकास दर हासिल करने की राह में सहकारिता को महत्वपूर्ण माना जाने लगा है। उल्लेखनीय है कि हाल ही में राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (एन.सी.डी.सी.) ने 2006-07 के लिए डेयरी, हथकरघा और ढांचागत सुविधाओं से संबंधित मदों पर सहकारी संस्थाओं को 4009 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की है, जो पहले की अपेक्षा 74 फीसदी अधिक है। इसके अलावा राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम द्वारा वर्ष 2007-08 के लिए 2000 करोड़ रुपये के कार्यक्रमों को मंजूरी दी गई है। ये कार्यक्रम विपणन एवं वितरण, प्रसंस्करण सुविधाओं के समेकन, बीमार इकाइयों के पुर्नस्थापन, डेयरी, कोल्ड स्टोर और हथकरघा क्षेत्र से संबंधित हैं। ऐसे में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि सहकारिता के मूल में ग्रामीण आर्थिक संरचना को मजबूत करने का सूत्र निहित है।

कुछ समय पूर्व कृषि मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा था कि देश भर के छोटे छोटे उत्पादकों को संगठित करने में सहकारी समितियों की भूमिका महत्वपूर्ण साबित हो सकती है और बाजार की स्थिति के मुताबिक ग्रामीण उद्यमियों के हितार्थ मानकों के निर्धारण में भी सहकारी समितियां उल्लेखनीय योगदान दे सकती हैं। सहकारिता समितियों के विषय में कहा जाता है कि ये '्'समान आर्थिक कठिनाइयों का सामना करने वाले व्यक्तियों के ऐसे संगठन हैं, जिसमें समान अधिकारों एवं उत्तारदायित्वों के आधार पर स्वेच्छापूर्वक मिलकर इसके सदस्य कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार बनाए गए समूह के संचालन का आधार सदस्यों के परस्पर हस्तांतरण्ा पर आधारित होता हैं और इस प्रक्रिया में निहित जोखिम भी उन्हीं का होता है, जिससे इसका भौतिक एवं नैतिक लाभ संगठन के सदस्यों को बराबर मिलता रहे।''

हालांकि 20 वीं सदी के आरंभिक वर्षों में जब देश को अकाल के भीषण दौर से गुजरना पड़ा तो सहकारी साख समितियों के गठन की अत्यंत आवश्यकता महसूस की गई थी। सन् 1900 में मैक्ग्लेन और डुपलैक्स ने मिलकर पहली ऋण समिति बनाई। 1901 में अकाल आयोग की रिपोर्ट एवं एडवर्ड मैक्लेगन की सिफारिशों के आधार पर एडवर्ड लॉ की अध्यक्षता में भारत सरकार ने सहकारी साख समितियों के गठन पर मुहर लगा दी। सन् 1903 में सेन्ट्रल असेम्बली में एक बिल लाया गया, परिणामत: 1904 में ''सहकारी साख अधिनियम'' असतित्व में आया। भारत में सहकारिता आंदोलन का आरंभ कृषि एवं इससे संबंधित सहायक क्षेत्रों से माना जाता है। 1904 में बने सहकारी साख अधिनियम के बाद ही भारतीय सहकारिता आंदोलन की विधिवत् शुरुआत हुई। इस अधिनियम का उद्देश्य किसानों, कारीगरों तथा सीमित साधनों वाले व्यक्तियों में बचत , स्व-सहायता तथा सहकारिता की भावना को जागृत करना था, जिससे वे निर्धनता से उबर सकें। इस अधिनियम की कमियों में सुधार हेतु ''सहकारी समिति अधिनियम 1912'' पारित किया गया। वर्ष 1914 में एडवर्ड मैक्ग्लेन की अध्यक्षता में बनाई गई समिति की सिफारिशों के आधार पर किसी भी सहकारी समिति के गठन में पूरी तरह से सावधानी बरतने की बात कही गई। सन् 1919 तक सहकारिता की जड़ें और भी मजबूत होने लगी थी। इसी वर्ष सहकारिता को मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में राज्य के विषय के रूप में शामिल कर लिया गया और उन्हें अपनी सुविधानुसार कानून बनाने का अधिकार भी दे दिया गया।

भारतीय सहकारिता आंदोलन में सहकारी समितियों की अहम् भूमिका मानी जाती है। भारत का सहकारी क्षेत्र विश्व के वृहदतम सहकारी क्षेत्रों में शुमार किया जाता है। ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में सहकारी समितियों का जाल देश भर में फैला हुआ है। हालांकि इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता है कि नाबार्ड , नैफेड, कृभको, इफको, अमूल, एनएफआईसी, ट्राईफेड, फिश कापफेड, नेशनल फेडरेशन ऑफ लेबर कोऑपरेटिव जैसे चंद गिने चुने संस्थानों को छोड़कर सहकारिता के क्षेत्र में कुछ विशेष नहीं किया जा सका हैं। मार्च 2003 के आंकड़ो के मुताबिक 5.41 लाख समितियां भारतीय सहकारी क्षेत्र का हिस्सा थी, जिनकी पहुंच देश के शत् प्रतिशत गांवों तक बताई जाती है। इन समितियों के 22.15 करोड़ सदस्य होने की बात भी कही जाती है। इतना सब कुछ होते हुए भी लम्बे समय तक देश की अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा बने रहे किसान आत्महत्या को आज विवश हो रहे हैं, तो निश्चित तौर पर कहीं न कहीं कुछ कसर रह गई थी जिसके कारण देश की करीब 25 प्रतिशत आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने को विवश है।

यद्यपि अतीत पर नज़र दौड़ाएं तो स्थिती इतनी लचर नहीं कही जा सकती है। आधुनिक सहकारिता का उद्भव स्वतंत्रता के बाद देखने को मिलता है। आजादी के कुछ ही समय बाद सहकारिता के सिध्दांतों पर आधारित सामुदायिक विकास योजनाओं की शुरुआत की गई। गरीबी उन्मूलन एवं सामाजिक आर्थिक विकास में सहकारी क्षेत्र की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाने लगा था। यही कारण था कि पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत के समय सहकारिता को इसमें समग्र रूप शामिल कर लिया गया और कहा गया कि पंचवर्षीय योजना कि सफलता सहकारी समितियों की सहभागिता पर बहुत हद तक निर्भर करेगी। 1954 में आई ''ऑल इंडिया रूरल क्रेडिट सर्वे कमेटी'' की रिपोर्ट में सहकारी समितियों द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले ऋण को ग्रामीण आर्थिक संरचना के सुदृढ़ीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण बताते हुए इसमें सरकार की भागीदारी की सिफारिश भी की गई थी। सन् 1958 में राष्ट्रीय विकास परिषद् ने सहकारिता को लेकर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की अनुशंसा की और इस तरह से भारतीय सहकारिता आंदोलन गति पकड़ने लगा था। 1950-51 में सभी प्रकार के सहकारी संस्थानों की संख्या 1.81 लाख आंकी गई है, जबकि 1996-97 में 4.53 लाख संस्थानों के होने की बात कही जाती है। इसी तरह इन समितियों के सदस्यों में भी खासी बढ़ोत्तारी देखने को मिलती है। इसी कालखंड में सदस्यों की संख्या 1.55 करोड़ से बढ़कर 20.45 करोड़ हो गई।

इस विशेष और विशाल सहकारी आंदोलन को सरकारी समर्थन देने के लिए राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम का गठन किया गया है। निगम का उद्देश्य कृषि सहकारी समितियों को सुदृढ़ और विकसित करना है और उनकी आय को बढ़ाने के लिए फसलोपरांत सुविधाएं मुहैया करवाना है। निगम ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि आदानों, प्रसंस्करण, भंडारण एवं कृषि उत्पादों के विपणन तथा उपभोक्ता वस्तुओं की आपूर्ति संबंधी कार्यक्रम पर ध्यान दे रहा है। गैर कृषि क्षेत्र में कमजोर तबकों को प्रोत्साहन देने के लिए भी निगम प्रयासरत है। इसके लिए वह हथकरघा, कुक्कुट पालन, मात्स्यिकी, अनुसूचित जनजाति की सहकारी समितियों से संबंधित कमजोर वर्गों पर विशेष ध्यान दे रहा है। राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम (संशोधन) अधिनियम, 2002 के पारित हो जाने के पश्चात् राष्ट्रीय सहकारी विकास निगम का कार्यक्षेत्र बढ़ गया है। इसमें पशुधन, कुक्कुट और ग्रामीण उद्योग, हस्तशिल्प, ग्रामीण्ा शिल्प तथा कुछ अधिसूचित सेवाओं को भी शामिल कर लिया गया है। इस अधिनियम के तहत सहकारी समितियों को ज्यादा स्वायत्ताता दी गई है।

इसी दिशा में एक और पहल के रूप में राज्यों केंद्र शासित प्रदेशों के परामर्श से केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सहकारिता नीति तैयार की है। इसका उद्देश्य देश में सहकारी समितियों के चहुंमुखी विकास को बढ़ावा देना है। इसके अंतर्गत सहकारिताओं को आवश्यक समर्थन, प्रोत्साहन और सहायता दी जाएगी ताकि वे स्वायत्ताशासी, आत्मनिर्भर और लोकतांत्रिक संस्थाओं के रूप में कार्य कर सकें। वे अपने सदस्यों के प्रति पूर्ण रूप से जवाबदेह हों। वे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में विशेषकर देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले बड़े वर्ग, जिनके लिए सार्वजनिक भागीदारी और सामुदायिक प्रयासों की जरूरत होती है, के उत्थान में एक विशेष योगदान कर सकें। इस नीति के अंतर्गत सरकार की भूमिका समय पर चुनाव करवाने, सहकारी संस्थाओं की लेखा परीक्षा करवाने और सदस्यों तथा सहकारिताओं से सम्बध्द अन्य पक्षों के हितों की सुरक्षा करने तक सीमित होगी। सहकारिता के आधार पर चल रही चीनी मिल, कोल्ड स्टोर, इफको और कृभको के विशाल उर्वरक कारखाने कृषकों को आवश्वस्त कर रहे हैं। गुजरात के अमूल दुग्ध उत्पादन ने सहकारी क्षेत्र पर अपनी धाक जमा रखी है। किसानों को ऋण, बीज, खाद, कीटनाशक दवाइयों, कृषि उपकरणों के वितरण, उनके उत्पादों के प्रसंस्करण, भंडारण और विपणन से सहकारिता जुड़ चुकी है। किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलवाने में भी सहकारिता का योगदान है। 'ऑपरेशन फ्ल्ड' सहकारिता से ही संभव हो पाया है।

सहकारी साख (नाबार्ड), सहकारी विपणन (नैफेड), खाद एवं प्रसंस्करण सहकारिता (कृभको, इफको), दुग्ध सहकारिता (अमूल), महिला सहकारिता (एनएफआईसी), आदिवासी सहकारिता (ट्राइफेड), खाद्य सहकारिता (फिश कापफेड), श्रमिक सहकारिता (नेशनल फेडरेशन ऑॅफ लेबर को-ऑपरेटिव) और सहकारिता संगठन (एनसीडीसी तथा एनसीयूआई), भारत में सहकारिता की सफलता की गाथा दर्ज करवा चुके हैं। सहकारी समितियों में समयबध्दता, पारदर्शिता, व्यवहारशीलता तथा सहभागिता का समावेश होना आवश्यक है। गांवों और किसानों के विकास के सपने को साकार करने के लिए 11वीं पंचवर्षीय योजना में सहकारिता को अधिक महत्व दिया जाएगा। कृषि ऋण को बढ़ावा देने के लिए सहकारिता एक बेहतर माध्यम है। सहकारिता कृषि और ग्रामीण विकास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कृषि ऋण के विभिन्न आयामों; मसलन-क्रेडिट, उत्पादन, प्रसंस्करण, मार्किटिंग, इन्पुट्स का वितरण, हाउसिंग, डेयरी और टेक्सटाईल इत्यादि में आज सहकारी संस्थानों की महत्वपूर्ण भागीदारी है। कुछ क्षेत्रों जैसे - डेयरी, अर्बन बैंकिग एवं हाउसिंग, चीनी एवं हैण्डलूम इत्यादि में सहकारी संस्थानों ने अपनी उपलब्धि दर्ज करवाई है। देश में सहकारी आंदोलन की असफलता के पीछे इसके सदस्यों की निष्क्रियता एवं प्रबंधन में सक्रिय सहभागिता का अभाव रहा है। सहकारी साख समितियों की उधारी बाकी, आंतरिक संसाधनों को इकट्ठा करने की इच्छाशक्ति का अभाव, सहकारी सहयता पर अधिक निर्भरता, व्यवसायिक प्रबंध तंत्र का अभाव, प्रशासनिक अंकुश, प्रबंधन में अनावश्यक दखलंदाजी भी इसकी असफलता के लिए कम दोषी नहीं है। निहित स्वार्थी लोगों के सहकारी समितियों पर छाए रहने के कारण भी आम लोगों तक सहकारी आंदोलन का प्रभाव महसूस नहीं होता। इस कारण यह अपने उद्देश्य को पाने में असफल रहती है। अत: इस आंदोलन को जन-जन तक पहुंचाने के लिए समुचित वैधानिक एवं नीतिगत उपाय करने होंगे।

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