मेरा गाँव मेरा देश

Wednesday, October 1, 2008

अपना देश रेल में

उमाशंकर मिश्र
रेलगाडियों में फेरी का काम करने वाले बच्चों की जिंदगी के अलग-अलग आयाम देखने को मिलते हैं, तम्बूरा बजाकर मस्तमौला जिंदगी जीना किसी का शौक हो सकता है तो कोई निषेधात्मक चेतावनी के बावजूद ट्रेन में गुटखा एवं सिगरेट बेचने का जोखिम भरा काम करने को मजबूर है।

आठ वर्षीय राजू हर रोज की तरह उस दिन भी वैशाली एक्सप्रेस में सवार हो चुका था। लेकिन उसकी यात्रा अन्य मुसाफिरों की तरह न थी, बल्कि वह तो ट्रेन में सफर करने वाले यात्रियों को कुछ समान बेचकर दो पैसे कमाने की जुगत में घर से निकला था। हाल ही में हाजीपुर रेलवे स्टेशन के निकट ट्रेन में गुटखा और मिनरल वॉटर की बोतलें बेचते समय जब आरपीएफ के कुछ कांस्टेबलों को राजू ने मुफ्त में गुटखा देने से मना कर दिया तो उसे चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया गया। इस घटना से मासूम राजू को अपनी एक टांग गंवानी पड़ गई।
ट्रेन-वेंडर्स बच्चों को चलती गाड़ी से नीचे फेंका जाना कोई नई बात नहीं है। पहले भी इस तरह की घटनाएं होती रही हैं और बच्चे इसी तरह से ट्रेन में दबंग पुलिसिया कहर का शिकार बनते रहे हैं। इस घटना के करीब एक सप्ताह पूर्व ही मुगलसराय से करीब 25 किलोमीटर की दूरी पर एक सीआरपीएफ जवान ने पेंट्रीकार कर्मी इस्माईल अंसारी को भी इसी तरह ट्रेन से नीचे फेंक दिया था। हाजीपुर में ही राजू की तरह ही चाय बेचने वाले 12 वर्षीय सलीम अंसारी को भी कुछ समय पूर्व रेलवे पुलिसकर्मियों ने चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया था और सलीम भी अपनी एक टांग गंवा बैठा। मुज्जफरपुर निवासी सलीम अंसारी के पिता मजदूरी करते हैं। वह बताता है कि पुलिस के लोगों ने जब उससे ट्रेन में चाय बेचने की एवज में पैसे मांगे और उसने मना कर दिया तो पुलिसकर्मियों ने जबरन उसके पास मौजूद 200 रुपये छीन लिए और सलीम को ट्रेन से नीचे फेंक दिया।
सलीम और राजू की तरह हजारों मासूम बच्चे इसी तरह भारत के एक छोर से दूसरे छोर तक चलने वाली ट्रेनों में सफर करते हैं और अपने तथा अपने परिजनों के लिए दो वक्त की रोटी जुटाने का प्रयास करते हैं। इस दौरान इन बच्चों का सामना विभिन्न प्रकार के लोगों से होता है और कुछ इसी तरह से उनके लिए अभिशाप साबित होते हैं। लेकिन रेलगाडियां तो चलनी ही हैं और ऐसे में राजू और सलीम जैसे इन बच्चों का सफर भी अनवरत जारी रहता है। इन बच्चों की जिंदगी के अलग-अलग आयाम देखने को मिलते हैं। कोई तम्बूरा बजाकर मस्तमौला जिंदगी रहा है तो कोई निषेधात्मक चेतावनी के बावजूद ट्रेन में गुटखा एवं सिगरेट बेचने का काम करता है।
`तू मेरा शहजादा, मैं तेरी शहजादी´... कुछ इसी तरह के गीत भारतीय रेल में समान्य दर्जे के सफर में अक्सर सुनने को मिल जाते हैं, जिन्हें गाने वाले, कोई स्टार गायक या कलाकार नहीं, बल्कि छोटे-छोटे बच्चे होते हैं। तम्बूरे की तान और सुरो के संगम के इर्द-गिर्द मेहरअली का जीवन घूमता है। हाथ में तम्बूरा लेकर मेहरअली तड़के ही अपने काम पर निकल पड़ता है। मेहर के 5 भाई भी हैं, जो पेशे से फकीर हैं, जबकि पिता राशि के नग बेचकर दूसरों की किस्मत संवारने का काम करते हैं। दूसरी ओर बच्चों में कोई तम्बूरा बजाता है तो कोई फकीर सी बेफिक्री की जिंदगी जीना चाहता है। लेकिन यह सब केवल बेफिक्री एवं मस्तमौलेपन के लिए हो, ऐसा नहीं है। यह सब कमाई का एक जरिया भी है। लोढ़ापाल गांव, उमरिया जिला, मध्यप्रदेश के रहने वाले मेहर को अपनी उम्र तक नहीं मालूम है। उसे सिर्फ इतना पता है कि जब वह काफी छोटा था तभी से इस सफर की शुरुआत हो गई थी। वह बताता है कि पहले वह खट-पट (दो चपटे पत्थरों का वाद्य-यंत्र) बजाता था। लेकिन अब वह टिन के डिब्बे में तार बांधकर बनाए गए तम्बूरे को बजाने का कार्य करता है। वह बताता है कि तम्बूरा बनाने की कला उसने अन्य लड़कों को देखकर सीखी है। अनूपपुर जंक्शन से उमरिया रेलवे स्टेशन के बीच से गुजरने वाली रेलगाडियों के बीच मेहरअली के तम्बूरे की तान सुनी जा सकती है। ऐसा नहीं है कि इस सफर में मेहरअली अकेला ही होता है। उसके कुछेक अन्य साथी भी मेहर का हमसफर बनते हैं। शाम होती है तो हर मां की तरह मेहर की मां भी उसकी बाट जोहने लगती है। लिहाजा, मेहर को इस बात का बखूबी ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं घर पहुंचने में देर न हो जाए। दिन भर रेलगाडियों में तम्बूरा बजाकर मुसाफिरों को मंत्रमुग्ध कर देने वाले मेहर की जिंदगी आम बच्चों की तरह नहीं है। शाम को 4-5 बजे घर वापस पहुंचकर उसे गाने का रिआज भी करना होता है। ऐसे में खेलने-कूदने का समय ही कहां बच पाता है। जब उससे पढ़ाई लिखाई की बात पूछी जाती है, तो मेहर ठिठक सा जाता है। लेकिन वह गर्व से बताता है कि घर में एक टी.वी. और वीसीडी भी है, जिसकी मदद से वह गाना सीखता है।
अक्सर इस तरह के बच्चों को जब लोग देखते हैं तो उनकी आंखों में दयाभाव उतर आता है। लेकिन मेहरअली के लिए तम्बूरा बजाना कोई विवशता नहीं बल्कि कमाई का एक जरिया है। इसी रूट पर नियमित सफर करने वाले एक रेलयात्री के मुताबिक इस तरह रेलगािड़यों में घूम फिर कर ये सारे भाई दिन भर में करीब एक हजार रुपये तक आसानी से कमा लेते है। ऐसे में पढ़ाई लिखाई की फिक्र किसे रहती है। माता पिता भी बच्चों पर किसी तरह का दबाव नहीं डालते कि वे आगे पढ़ें और बढें, एक बेहतर इंसान बनें। इसे प्रोत्साहन एवं प्रेरणा की कमी ही माना जाएगा, जिसके चलते मेहरअली जैसे बच्चे तालीम के साथ साथ मुकम्मल इंसान बनने से भी वंचित रह जाते हैं। करीब 10 वर्षीय रोहित भी मेहरअली जैसे बच्चों की ही जमात का एक हिस्सा है। अनूपपुर, मध्यप्रदेश के रहने वाले रोहित के दो भाई और भी हैं। वे भी रोहित की तरह रेलगाडियों में खट-पट बजाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं और ट्रेन के डिब्बों में झाड़ू लगाकर शाम तक 80 से 100 रुपये तक कमा लेते हैं। इस तरह से कुल मिलाकर तीन सौ से चार सौ तक की कमाई हो जाती है। रोहित के पिता चटाई बुनने का काम करते हैं। जब रोहित की फोटो लेने का प्रयास किया गया, तो वह यह कहता हुआ भाग गया कि फोटो पेपर में छाप देंगे। रोहित और मेहर की तरह रेलगाडियों में सफर करने वाला हर बच्चा शौकिया तौर पर इस तरह के काम करता होऋ ऐसा नहीं है। कई बच्चों के सिर पर मां बाप का साया तक नहीं होता। ऐसे में ट्रेनें ही उनकी जिंदगी का हमसफर बन जाती हैं और रेलवे स्टेशन आशियाना। मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश के रहने वाले 15 वर्षीय मनोज उन्हीं बच्चों में से एक है, जो अपना एवं परिजनों का पेट पालने के लिए और जिंदगी की गाड़ी को आगे धकेलने के लिए रेलगािड़यों में रोजी-रोटी की तलाश में बेतकल्लुफ होकर घूमते रहते हैं। यहां बाल मजदूरी के खिलाफ बने तमाम कायदे कानून भी आकर धवस्त हो जाते हैं। मनोज कहता है कि ``क्या करें भैया पढने का तो मन करता है लेकिन पिताजी के नहीं रहने पर रेलगाड़ी में गुटखा, सिगरेट बेचने निकल पड़ता हूं। जिससे अपने छोटे भाई-बहनों का पेट भर सकूं। वह कहता है कि कुछ पैसे बच जाते हैं तो मां के लिए दवाई ले जाता हूंऋ वो अक्सर बीमार रहती हैं।´´
ट्रेन में एक अलग तरह का सफर करने वाले इन बच्चों की जिंदगी में झांकने पर इनके जीवन के कई पहलू सामने आ जाते हैं। ऐसे में सवाल न केवल बाल मजदूरी का है, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी से भी जुड़ा हैऋ जहां इस बात को भुला दिया जाता है कि कल यही बच्चे देश का भविष्य बनेंगे। अगर ये बच्चे खुद ही मुकम्मल इंसान नह बन सके तो इस बात की संभावना भी कम ही रह जाती है कि इनकी अगली पीढ़ियां बेहतर इंसान बन सकेंगी। कोई पैसे कमाने के लिए बचपन में ही फकीर बन जाएगा, तो कोई तम्बूरा बजाने निकल पड़ेगा, या फिर कोई मजबूरी आंख-मिचौनी का खेल खेलने वाले कोमल हाथों में पत्थर तोड़ने का हथौड़ा थमा देगी अथवा बीड़ी, सिगरेट बेचना पड़ सकता है। सामाजिक जिम्मेदारी माता-पिता की ही नहीं स्थानीय प्रशासन, गैर-सरकारी संस्थाओं, राज्य सरकारों की भी बनती है। जबकि रेल में सफर करने वाले इन बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से रेलवे भी आंखे नहीं मूंद सकती, अन्यथा राजू और सलीम जैसे बच्चे रेलगाडियों में रोटी की तलाश में भटकते रहेंगे, साथ ही उन्हें चलती गाड़ी से नीचे फेंके जाने की घटनाएं भी होती रहेंगी.

इंडिया फांउडेशन फॉर रूरल डेव्लपमेंट स्टडीज
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1 comment:

संगीता पुरी said...

बहुत ही शोचनीय घटना.... इसी वजह से ऐसे बच्चे आपराधिक घटनाओं को अंजाम देना शुरू करते हैं।