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Monday, November 26, 2007

कैसे पटेगी गरीबी और अमीरी की खाई


आर्थिक नीतियां ही नहीं राजनीतिक संस्कृति भी उच्च तथा निम्न वर्गों के बीच बढ़ रही खाई के लिए जिम्मेदार है। इसके लिए व्यक्तिगत रूप से कांग्रेस को जिम्मेदार माना जा सकता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस ने लैपटॉप का चेहरा बनाया और तेवर भी वैसे ही दिखाए, लेकिन आचरण में कमजोर तबकों के उत्थान के लिए कोई ठोस काम नहीं किया। नतीजा ये हुआ कि इस देश में नक्सलवाद जैसे उग्रवाद को आदिवासी और वंचित समूहों जगह बनाने और उनकी सहानुभूति और एक हद तक सहयोग अर्जित करने में सफलता मिली। ऐसे में जहां-जहां पर भूमि सुधार नहीं हुए छोटा किसान अपना अस्तित्व बनाए रखने में विफल रहा है तथा राजनैतिक तथा प्रशासनिक भ्रष्टाचार बेलगाम होने लगा है।
1985 में जो आर्थिक नीतियां अपनाई गई, उससे देश में आर्थिक विकास तो हुआ, लेकिन उस विकास का कितना लाभ जरूरतमंदों को मिला है, यह देखना होगा। वास्तविकता तो यह है कि कुछ चतुर और सबल लोगों को ही इस तरह के विकास का लाभ मिल रहा है। इस तरह से एक बहुत बड़ा समुदाय आर्थिक विकास के लाभ से वंचित रहा है। उसके बारे में न तो सोचा गया और न ही कोई व्यवहारिक नीति बनाई गई। चंद बड़ों को संपन्नतम बनाने की जो नीतियां सरकार अपना रही है, वही लोग भविष्य में सरकारों को बनाने बिगाड़ने का भी काम करने लगेंगे। आज सरकार के हाथ से न केवल आर्थिक शक्ति, बल्कि सरकारों के स्वरूप के निर्धारण करने की भी शक्ति निकलती जा रही है। इस तरह की परिस्थिति देश के लिए भयंकर साबित होगी। जिन देशों में आर्थिक असामनता की खाई चौड़ी होती है, वहां जनअसंतोष भी किसी न किसी उपलब्ध मुहाने से फूट निकलता है। मिसाल के तौर पर पाकिस्तान को लिया जा सकता है, असमानता बढ़ने लगी तो इस्लामिक आतंकवाद का जन्म हो गया। आज इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि पाकिस्तान के एक तिहाई हिस्से पर कानून का शासन ही समाप्त हो गया है। विडंबना ही है कि जनता ने तो बदलना तो सीखा, लेकिन सरकारें एक दूसरे का पर्याय ही बनकर रह गईं, वे विकल्प कभी नहीं बन सकीं। जब तक कि हम लोग भारतीय परंपरा, परिवेश की मूल आवश्यकताओं और समाज के करीब 75 प्रतिशत लोगों को ध्यान में रखकर आर्थिक एवं प्रशासनिक तथा िशक्षा की नीतियां नहीं बनाएंगे, स्थिति में सुधार होना असंभव है। बदली हुई परिस्थिति के अनुरूप आज भी गांधी का आर्थिक, सामाजिक और नैतिक चिंतन इस चक्रव्यूह से बाहर निकलने का एकमात्र मार्ग दिखाई देता है। ताजा प्रसंग परमाणु समझौते का लिया जा सकता है, जिसमें सारा प्रचार तंत्र उसी पर केंद्रित हो गया, लेकिन किसान मर रहा है( ये न तो बहस का और न ही जनता की चिंता का विषय है। बात थोड़ी आप्रसंगिक हो सकती है, लेकिन जब तक भारतीय जीवनशैली की बातें राजनीतिक जीवन में नहीं उतरेंगी इस तरह की स्थिति में सुधार की संभावना कम ही जान पड़ती है। आज इसी तरह के नैतिक आग्रह की जरूरत है। गरीब तथा अमीर, गांव तथा शहर के बीच का फर्क तभी मिट सकता है, जब गांवों से पलायन रुके और लोगों को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकें। इससे गांव का किसान भी मजबूत होगा। इसके अलावा प्रशासनिक, राजनितिक भ्रष्टाचार( जो दलालों को पैदा करता है, योजनाओं में बटमारी भी वंचितों को अधिक वंचित बनाती है। इस तरह देश में एक बहुत बड़ा विभाजन हो रहा है।

( जैसा कि वरिष्ट पत्रकार और रायपुर हरिभूमी के सलाहकार संपादक रमेश नैयर ने उमाशंकर मिश्र से कहा....)

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